Thursday, 22 August 2013

" ये ज़िंदगी कतरा-कतरा कर रोज़ गुज़र जाती है यूँ "



ये ज़िंदगी कतरा-कतरा कर रोज़ गुज़र जाती है यूँ 
जैसे रेत कूपों में लहर दबे पाँव भर ले जाती है 

 ये अकेलापन आ मुझसे रोज़ चिपट जाता है यूँ 
जैसे काई कुँए की दिवार पर रोज़ जम जाती है 

ये उलझन मेरे मन के बगल रोज़ बैठ जाती है यूँ  

जैसे दोस्त कोई बचपन हर शाम मिलने आ जाता है

ये सब देख रोज़ जी मेरा घबराता है यूँ 

जैसे घर के कोनो में दुप्का कोई चूहा हो 

ये सब चीज़ों से ख़ुद को बचाता हूँ रोज़ यूँ 
जैसे माँ छतरी में बच्चे को झुलसन से बचाती हो  


-शौर्य शङ्कर 

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