कुछ और धुंधले होते जा रहे है
वो रंग, पुरानी यादों के मेरे
कुछ ही रंगों का अस्तित्व बचा है बाकी
सब सफ़ेद या स्याह से लगते हैं अब तो।
मिटटी के बने वो घर, सफों में
गोबर से लिपे आँगन और बरामदे
राख़ से माँजे हुए साफ़-सुथरे बर्तन
जिस पे धुप अपने सुनहरे पंख, छोड़ गई है।
कल ढूंढते वापिस आयेगी, इसी रसोईघर में
जहाँ गेहूँ में लगे घुन के डर से
मिटटी के कोठरी पे चढ़ बैठी थी।
सीक पे टंगी मटकियों से; दही चुराई थी
और हड़बड़ाहट में, कोठरी से उतरते हुए
तखत पे रखा, अचार का बोयाम गिराया था।
जल्दी में कभी सिलबट्टे से बचती
कभी किवाड़ के पास रखी ओखली से
चूल्हे के आढ़ में बेसुध पड़ा वो लोटा
तेल से बने पैरों के, निशान झाँकता।
आंगन में चटाई पे सूखती, वो बड़ियाँ
तेल से सने पंजों को देख, चीख पड़ी
तभी हवा जो बरामदे में पड़ी खाट पे
दुनिया से बेखबर सो रही थी, घबरा के उठी
तो एक साया सिरहाने से भागता दिखाई पड़ा।
शौर्य शंकर
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