मेरा मन कुछ दिनों से,
अकेले शहर घूम आता है
कुछ देर बाद ही सही
पर दिल के आँगन में खुलती खिड़की से
अकेले शहर घूम आता है
ये बावला सा है कुछ ,
मेरी बात सुनता ही नहीं।
मेरी बात सुनता ही नहीं।
किवाड़ पे दस्तक होते ही,
रात का आँचल पकड़े, निकल पड़ता है
पूरी रात इधर-उधर,
खाली डब्बे सा बेवजह ही घूमता रहता है ।
रात का आँचल पकड़े, निकल पड़ता है
पूरी रात इधर-उधर,
खाली डब्बे सा बेवजह ही घूमता रहता है ।
कभी किसी ठिठुरते बुढे को
अपने स्नेह की चादर ओढा आता है
अपने स्नेह की चादर ओढा आता है
तो कभी उन् कोने में लाचार पड़े
अंधेरे को, सड़क पार करवाता है।
अंधेरे को, सड़क पार करवाता है।
और जब डूबते बचपन को
नशे के भयानक भवर से बचाने जाता है,
तो गिद्ध से घूरते,
उन् खुंखार निगाहों पे लगे मुखौटे से, डर जाता है।
नशे के भयानक भवर से बचाने जाता है,
तो गिद्ध से घूरते,
उन् खुंखार निगाहों पे लगे मुखौटे से, डर जाता है।
ये उतावला मन बेचैन है; कब से,
किसी हिरन के बच्चे की तरह
किसी हिरन के बच्चे की तरह
जो हर एक छोटी सी आहट पे
आँख मीचे कोने में दुपक जाता है।
आँख मीचे कोने में दुपक जाता है।
कुछ देर बाद ही सही
पर दिल के आँगन में खुलती खिड़की से
बच्चों के पायल की किलकारियों को सुन
हल्का सा ही सही, पर मुस्कुराता है।
हल्का सा ही सही, पर मुस्कुराता है।
उसके चेहरे पे खिची काँटों वाली
तारों की सरहद से चोरी -छुपे
कोई असला-बारूद लिए, घुसता है,
और एक पल में, कही छु हो जाता है।
तारों की सरहद से चोरी -छुपे
कोई असला-बारूद लिए, घुसता है,
और एक पल में, कही छु हो जाता है।
माथे पे पसीने की बूंदे
अब कुछ ऐसे दिखते है
अब कुछ ऐसे दिखते है
जैसे खिड़की के कांच पे सरकती
बारिश की बूँदें हों, धीरे-धीरे।
बारिश की बूँदें हों, धीरे-धीरे।
और एक कोने से मुसलसल झांकती हैं,
मन के अन्दर, चुपचाप
जैसे कुछ कहना चाहती हो ,
कोई दुःख, बांटना चाहती हो मुझसे।
मन के अन्दर, चुपचाप
जैसे कुछ कहना चाहती हो ,
कोई दुःख, बांटना चाहती हो मुझसे।
तभी किसी ने,
देसी तमंचे से एक गोली दागी,
देसी तमंचे से एक गोली दागी,
वो ज़ख़्मी मोर तड़पता पिछली गली में
बिन रहा था; अपने बिखरे साँसों के टुकड़ों को।
बिन रहा था; अपने बिखरे साँसों के टुकड़ों को।
जो बार-बार उठने की
नाकाम कोशिश कर रहा था
नाकाम कोशिश कर रहा था
आखिरकार कामयाब तो हुआ,
पर, मरने के बाद।
पर, मरने के बाद।
पुलिस आई है अभी
पूछताछ को गली में
तमंचे को लिए,
जिसपे खून से सने उँगलियों के, निशाँ मिले हैं।
पूछताछ को गली में
तमंचे को लिए,
जिसपे खून से सने उँगलियों के, निशाँ मिले हैं।
आज कल खौफ़
खुले आम घूमता है शहर में
खुले आम घूमता है शहर में
लोगों को डराता हैं आते-जाते,
बेख़ौफ़ रात-दिन।
बेख़ौफ़ रात-दिन।
उन्ही सकरी गलियों में
अब खौफ़ के कुत्ते भी गुर्राते है
अब खौफ़ के कुत्ते भी गुर्राते है
खूनी पंजो से खरोच के समझाते हैं,
अपना मुह बंद रखने को।
अपना मुह बंद रखने को।
अब तो ओस भी
तेज़ाब बन गिरती है पत्तों पे
तेज़ाब बन गिरती है पत्तों पे
कोयल ने गाना, गाना
कब का छोड़ दिया है यहाँ।
कब का छोड़ दिया है यहाँ।
गौरैया भी शहर से
पलायन कर गयीं हैं,
पलायन कर गयीं हैं,
अब बच्चों के रगों में भी
खौफ़ बहने लगा है यहाँ।
खौफ़ बहने लगा है यहाँ।
खौफ़ की फसल होती है
खौफ़ ही खेतों में उगते है यहाँ
खौफ़ ही खेतों में उगते है यहाँ
अब खौफ़ ही खाते और पीते हैं,
लोग यहाँ।
लोग यहाँ।
अब ना ही
मेरा मन बेख़ौफ़ रहा
मेरा मन बेख़ौफ़ रहा
ना ही घर से निकलता है कभी कहीं,
पहले की तरह ..
पहले की तरह ..
-शौर्य शंकर
No comments:
Post a Comment