Thursday, 26 December 2019

कितना आसान है....



कितना आसान है लोगों से झूठ बोलना
बस ख़ुद से मैं झूठ नहीं बोल पाता

माफ़ कर देता हुँ आसानी से लोगों को
बस ख़ुद को मैं माफ़ नहीं कर पाता

नहीं छलकने देता आँखों को किसी भी बात पर
बस माँ को उदास देख ख़ुद को मैं रोक नहीं पाता

~ शौर्य शंकर

Monday, 16 December 2019

जला दोगे.....



जला दोगे मेरे प्रश्न
मेरा उतावलापन
मेरा आक्रोश
मेरा घर
जला दोगे तालीम मेरी
मेरी सूरत
मेरा नाम
मेरी पहचान
जला दोगे मुझे भी किसी दिन
खाख करदोगे मुझे किसी चोराहे
पेट की आग से तुम संसार जलादोगे
क्या मुझमे छुपे ललकार को जलापाओगे
मैं राख से उठ खड़ा हो जाऊँगा
तेरी तरफ़ उसी वेग से क़दम बढ़ाऊँगा
तेरी लाठी, बंदूक़ नहीं डरा सकते मुझे
मैं हर दफे आवाज़ उठाऊँगा
जला दोगे मुझे पर
मेरे ख़्वाब कैसे जलाओगे
आवाज़ कैसे दबाओगे
~शौर्य शंकर

Friday, 13 September 2019

चलो फिर मिलो.....




चलो
फिर मिलो
वहीं, उसी जगह
उसी पहर
जब सूरज उढेल देगा
उबलता पीतल आसमान पे
आम्मठ बनाने को, तभी
साँझ चुपके से कुतर देगी
थोड़ा बग़ल उसका और
एक आँख मींचे
हुलकेगी पार उसके
ठीक उसी पहर
बेर देखूँगा
चली आना
गरम कुछ पहन लेना
ठंड हो जाएगी बहुत
और आते हुएँ
एक हँसिया और ख़ाली बोतल
रंगीन काँच हो जिसका
पार दिखता हो
लेती आना
पोखर किनारे
महुए के पेड़ के आढ में
दूपक के बैठेंगे
इंतज़ार करेंगे दोनो
उन सुनहरे परछाइयों का
पायल, झूमके कुछ नहीं पहनना
उनसे शोर होता है
वो डर जाएँगे
वो आते हैं
कहीं-किसी और दुनिया से
हर अमावस
और उतार देते है
सुनहरी केचूलि
चमकती हुई
पोखर में कुछ खोजते हैं
बड़ी बेसब्री से
फिर पथराई आँखों से
मोती सा कुछ झाड़ देते हैं
एक-एक कर बिन लूँगा
चुपचाप सारी केचूलियाँ
और तुम उनसे
रंगीन बोतल भर लेना
गूप्प अंधेरे में
पगडंडियों से होते हुएँ
उसी बोतल की रोशनी से हमें
चाँद तक जाना है
मेरे साथ ही रहना
हाथ थामे
मेरे बग़ल में बैठी रहना
चुपचाप, दूपक के
हाँ अगर सीपियाँ मिले तो उठा लेना
ज़्यादा नहीं दो- चार ही काफ़ी है
उन्ही सीपियों से थोड़ा- थोड़ा कर
आसमान भरना है हमें चाँद में
सुनो ध्यान से काटना आसमान
थोड़ा -थोड़ा छोड़ देना
जड़ मत काटना
थोड़े ही दिनो में
फिर उग जाएगा आसमान
उन्ही जड़ों में कहीं - कहीं
केचूली रोप देना
वो चमकेंगे तो
थोड़ा बादल डाल झाँप देना
नहीं तो चीलें चुग लेंगी
बहुत पसंद है उन्हें
चलो थोड़ा सा ही सही
देख तो पाएँगे
एक दूसरे को
महसूस तो कर पाएँगे
पता नहीं कब से
श्राप से ग्रस्त हैं दोनो
कबसे देखा नहीं एक दूसरे को
बाहों में भरा नहीं
कब से रूठे नहीं
कब से मनाया नहीं
माथा चूम कर
गले से लगाया नहीं
अगर इस बार नहीं हुआ ऐसा
अगली अमावस फिर आना होगा
क़रीब ११बार में श्राप होगा ख़त्म
हमें ही इन्हें मिलाना होगा
बिना तुम्हारे नहीं कर पाउँगा ये काम
तुम्हें मेरे साथ फिर चाँद तक आना होगा
सुनो रविवार को चला करेंगे उनसे मिलने
दोनो के साथ बैठा करेंगे
पैर लटकाके बैठना
एक कोने तुम,दूसरे पे मै
थोड़ी देर चाँद पे
सी-सॉ खेला करेंगे
~शौर्य शंकर

Monday, 9 September 2019

Sunshine..

Sunshine..
I’s too naive to realize
What’s happening
In the world of darkness
I carry n ocean
Underneath my eyes
Dripping drop by drop
Rolled over my cheeks
Tasted , saline
In the cage of my heart
Shackled, bolted,locked
With no windows n doors
Through those cold walls
I’d feel your warmth though
Hugs, kisses on my face
I’s always remembering you
Walking across the rose garden
Hands with tangled fingers
I always thought
I’s living in the darkness
Fighting everyday
Doubted myself
To sail through
Until I met you
You made me see my path
You believed in me
The very moment
I laid my eyes on you
I found my light
Sunshine of my life
You torched something in me
A desire , a hope , a meaning
No darkness left inside
It’s Sunny, vibrant n bright
Fragrance of blossomed life
I can see my path now
Crystal clear
The sparkling golden light
always remind me of you
Your face over mine
Your shy eyes always shine
Warm smell of strawberry
Rising up through my mind
Tasted Lipstick you’re wearing
When Your lips stroked mine
Wearing your smell
Taking you in my arms
Your hands on my shoulders
Your Face dug deep in my chest
From that crack you peeped in
You became what you’re seeking
Two bodies becoming one
Two souls becoming one
You’re I
I’m you and
We’re us .
~ Shaurya Shanker

Thursday, 27 June 2019

हम चार भाई ...


हमारा अपना कोई घर नहीं
हम चार भाई
चले
सबसे बड़ा चला बनाने को एक
अकेला था
कुछ साल पहले ही चल बसा
कुछ सालों से मैं लगा हूँ
बनाने को एक घर
सबके साथ रहने को
अब चार मकान है
सब अलग रहते हैं
माँ थोड़ा-२ सब में रहती है
~शौर्य शंकर

Sunday, 23 June 2019

रोज़....



रोज़ उतारता
क़मीज़ बदन पे से
और टाँग देता
अपना आज खूटे पे
मैल और पसीने में
मेरी दिनचर्या
सवाल करती
मेरे नए मैं से
हर क़मीज़ में दर्ज
वक़्त घूरता है
नाराज़
सुबह अलग होता हूँ
कुछ जो अलग होता रोज़
टटोलता अपना शरीर
पर दिखता सब ठीक
खूँटों पे
उन क़मीज़ों में
धूल और पसीने में
हर दिन का ‘मैं’ टंग़ा है
कुछ घायल हैं
छल्ली हैं
लहू रिसता उनसे
क़तरा दर क़तरा
सूख जाता है
हर रविवार उतारता हूँ
खूँटों पे से खूद को
क़मीज़ के साथ
धूल
पसीना
आँसू
दर्द
दाग़ यादों के
हर दिन के
लाशों पे से
रगड़-२ के
धोता हूँ
नामों निशाँ
मिटा देता हूँ अपना
धूप मल के
उन्ही क़मीज़ों पे
अगले दिन के लिए
तय्यार कर देता हूँ
नई दिनचर्या को.....
~ शौर्य शंकर

Sunday, 21 April 2019

टिक, टिक, टिक.....

घड़ी के
हर एक टिक से
अगले टिक के बीच
सूरज के
हर एक पुंज से
दूसरे पुंज के बीच
दिल की
हर एक धड़कन से
दूसरे धड़कन के बीच
कुछ मेरा अपना
बहुत प्यारा सा
“ मैं”
कहीं खो जाता है
क़तरा-क़तरा सा रिसता हूँ
गोंद सा इस वकफ़े में
थोड़ा चमकता
फिर इतिहास हो जाता हूँ
मैं
दिन के उजाले मे
चकाचौंध आँखों से
टटोलता हूँ चेहरा
लगता है अपना सा
फिर ग़लतफ़हमी सोच
आँख मल के
सो जाता हूँ
मैं
कुछ उँगलियों पे
लगा रह जाता है
सुनहरे गुलाल सा शायद
फिर अगले ही पल
इत्तर सा कहीं
छू.... हो जाता हूँ
मैं
विलुप्त हो चुका है
क्या है
कैसा है
कहाँ रहता है
और कब होता है
क्या खाता
कहाँ सोता
किसी के साथ या
अकेले रहता है
कैसा दिखता है
लिबास
शक्ल
आवाज़
गंध
आँखों का रंग
इस टिक से टिक के बीच
समय का राक्षस हँसता है
थोड़ी और बूढ़ी होती
एक माँ का निकम्मा बेटा
इस शोर मे खो जाता है
थोड़ा और भटक जाता है
माँ से दूर हो जाता है
टिक, टिक, टिक.....
~ शौर्य शंकर