आँखें बंद किए बैठी है ,
उस टूटे मोड़े पे सुबह से।
कभी अपने सीले हाथ ,
तो कभी बदन सेकती।
अपने ख़ुले गीले बाल सुखाती ,
धूप के पंखड़ियों पर बैठी गर्माहट से ।
तेरी परछाई .......
दिन ढलने पर कभी - कभी मिलने आती है ,
और मेरी खिड़की पे, घंटों बैठी रहती है।
फिर कभी, एक आँख मीचे सीटी मारकर ,
एक अलग ही अंदाज़ में , मुझे बाहर बुलाती है।
कभी हाथों में हाथ डाले घंटों , ज़ीरो-काटा खेलती है,
आसमान के कोरे पड़े कागज़ के, एक कोने में ।
तेरी परछाई .......
कभी उन थके ,मंद पड़े तारों से बात करते ,
कुछ उनकी सुनते , कुछ अपनी सुनाते।
जब बादलों पे चढ़ते थक जाता हूँ मैं ,
तो उसके गोद में, सर रख कुछ देर सो जाता हूँ ।
कभी वो अपने आँचल के कोने से कान गुदगुदाती,
तो कभी अपने लम्बे बाल मेरे चेहरे पे डाल देती।
तेरी परछाई .......
चांदनी का पीछा करते अपने ही ख़यालों में,
हम बहुत दूर तक निकल जाते, साथ -साथ ।
उसके पंजे ,मेरे पंजों पर,उसके हाथ मेरे कंधों पर होते ,
जब कभी चलते-चलते दुखने लगते थे पैर उसके।
और हमारे आँखों के जोड़े सिमट जाते, एक हो जाते ,
खो जाते , समा जाते , पिघल कर मोम हो जाती थी।
' शौर्य शंकर '
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