Monday, 8 April 2013

"फुर्सत के पल"

शायद मेरी उसी
फटी निक्कर के जेब से
कहीं गिर गए, वो पल 

जब हम कंन्चों की आवाजों 
और लट्टू में मदहोश रहते थे 
कुछ और सूझता ही नहीं था 

या, शायद कुछ पता ही नहीं था 
या, उन् रंग बिरंगे कंचों
 जैसी दुनिया हम देखना ही नहीं चाहते थे 

दिन-रात फिरते रहना 
अपनी बचपन की बैलगाड़ी पे 
तरह-तरह के सुनहरे 
फुर्सत के पलों की पोटली लिए।

कुछ मेरी ही तरह थे,मेरे दोस्त 
और उन दोस्तों में एक कुत्ता 
जिसका नाम तो याद नहीं 
पर उसका प्यार, आज भी साथ लिए जीता हूँ ।
 कभी उन
 अंग्रेज़ी फिल्मों की तरह
 नदी किनारे रेत पे धूप सेकना 
और घंटों तक नहाते रहना।

कभी कांटें बनाते,
कभी मछलियाँ पकड़ते 
कभी आम चुराते, 
कभी लीची के पेड़ों पे घंटों बैठे रहते। 

और जब जामुन तोड़ते थक जाते 
तो भैसों के पीठ पे बैठ 
अपने-अपने घर को चल देते
पता नहीं कहाँ हैं वो 
..फु ...र्स ....त .....    .के  ....... प ....ल ....





 ~ शौर्य शंकर 

No comments:

Post a Comment