Friday, 21 November 2014

"सोच.."

कवि महान नहीं होता
कविता भी महान नहीं होती
न ही सुन्दर होती है


महान तो होता है
उसके उत्सर्जन का श्रोत
वो सोच
जहाँ से वो पनपता है


कवि तो बस
सोच के वीर्य को
अपने मस्तिष्क की कोख में
एक काया, स्वरुप प्रदान करता है

असमाजिक समाज , साम्प्रदायिकता , पूंजीवाद , भूक ,ग़रीबी , द्वेष के
तपिश में जब वो क़तरा-क़तरा पनपता है
और शब्दों की चमड़ी चेहरे पे ओढ़ता है
शिशु बनता है
जन्म लेता है


और जब
एक कंधे पे विवशता
दूसरे पे लाचारी लटकाए
भूखे किसान की हथेली में रखे
राशन कार्ड पे दर्ज़ नाम की स्याही
पसीने से धुल जाती है
तब छाले पड़े हथेलियों की लकीरों से
लहू बनके टपकता है

नाकामी , इर्षा, आत्मग्लानी की लू मे
झुलसता है, चीखता है
तब पेट-भर स्वांस से
बुलंद आवाज़ में  नारा लगाता है
"इन्किलाब ज़िंदाबाद "
और बूँद बन गिर जाता है
पल में मिट्टी में मिल राख़ हो जाता है

वही राख युवा जब अपने
मस्तक पे लगता है
हाथ में तिरंगा लिए
सड़कों पे उतर आता है
और दोहराता है
"इन्किलाब ज़िंदाबाद , इन्किलाब ज़िंदाबाद . .... "


तब वो महान हो जाता है
वो सोच " इन्किलाब " ले आता है . ....




~शौर्य शंकर

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