Monday, 15 October 2012

साया मेरा


ये चलते कौन आगे निकल गया ,
             जो पीछे होने का एहसास दे गया मुझे ।
चल तू आगे निकल इससे  सोचता हूँ ,
              पर वो तो धुंध हो गया .............
वो कौन है  ,वहां सड़क के किनारे ?
              ऐसे क्यों बैठा है पेड़ के सहारे ? 
शायद ...शराबी है मदहोश ,
              अपना सा दीखता ,पर क्यूँ बैठा  है खामोश  ?
चलूँ  देखूं तो सही , है कौन  ? 
              पर गदली मंद रौशनी में दीखता भी तो नहीं ।
औंधे मुह पड़ा बड़बड़ा रहा कुछ अब ,
               ये आवाज़ तो सुनी है , पर कब ।
कभी हँसता ,कभी रोता , कौन है ये ?
               ज़हनी मशक्क़त कर रहा , कब से ।
उसे पलट पुछा , कौन हो भई ?
               हालत देख ,रूह मेरी मुह तक चली आई ।
ख़ून से लतपत जिस्म  उसका ,
              जैसे हर रोम चिन्घाढ़ रहा ...मदद को ।
पुछा  क्या हुआ तुझे  ,
            " ज़िन्दगी  के थपेड़ो के जख्म है ये " ।
 पर  अपने ज़ख्मों को देख़  हँसता क्यूँ  है ?
               पागल है शायद ,अब तो शुबा  है ये   ।
गोद मे उठा, ले चला दवाख़ाने  की ओर ,
               एक अजीब सी खुशी थी, जब देखा उसके चेहरे की ओर ।
जिस्मानी मशक़्क़त देख आँख भर आई,
रोता है क्यूँ तू ,यही तो ज़िंदगी है मेरे भाई ।
खुशी बेवफ़ा-सी , पल दो पल ही साथ थी ,
दुख की दोस्ती है ,जो साथ चलती है आई ।
अचानक सांस उखड़ने सी लगी, मेरी यों ,
               उसने कहा कुछ देर तू रुकता नहीं, क्यों  
सड़क किनारे पुलिया पर बैठ साथ उसके,
               उखड़ती बेचैन साँसों  को मैं समेटने लगा । 
देख मुझे वो बोला हिम्मत की पगड़ी बांध ,
               होसले के पंख फड़फड़ा , डर पे नकेल लगा ।
ये कह नम आँखों से मुझसे लिपट गया,
               मुट्ठी मे बंद रेत  सा पल मे फिसल गया ।
उसकी कराह क्यूँ महसूस होने लगी ,
               हर लम्हा रुई  सी हवा मे बहने लगी । 
आँख खोली ....उसका नामो निशां न था ,
              हर ज़र्रे से , पल मे वो फनाह सा था ।
उसकी आवाज़ ज़हन मे दस्तक दे रही थी,
              दरवाज़ा खोल देखा कोई भी खड़ा न था ।
उदास दिल की उँगली थामे चल पड़ा ,
              ला-इलाज ज़ख्म यादों की मुझे वो दे गया ।
हर लम्हा क्यूँ अजगर सा चिपटा है?
              क्यूँ आईने मे वो मुझे दिखता है ?
पाकीज़ा इबादत सा मुझमे घर कर गया ,
              ख़यालों मे उसकी बातों का किला दिखता है ।
ये कौन है ! कोई फरिश्ता तो नहीं ,
             साया हूँ मोहसीन ,मुख़ातिब जुर्रत-ए-मुख्तार  को ।


शौर्य शंकर 

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