Tuesday, 16 October 2012

खाली गलियाँ..




वो बचपन की खुश्गप्पिया वादियों मे ,
शोर -गुल के रंग भरते दुनियाँ के कागज़ पे ।

ये लम्बी खाली गलियाँ बाहें पसारे,
पल मे समेट लेती हमे अपनी आंचल मे ।

जैसे किसी बांझ के आँगन मे ,
किलकारियाँ गूंजी  हो कई सालों मे ।

वो खाली मकान खड़े बेरन से,
हर शाम दुल्हन बनती हमारे जाने से ।

दीवार की दरारों से झाँकती नज़रें ,
जैसे दीदार को बेसब्र हो अया न पाने पे ।

गुप्प अँधेरों के जंज़ीरों से लिपटी,
जैसे कोई संगीन सज़ा काट रही हो ज़माने से ।

ज़ीना दर ज़ीना कर आया हूँ ,
पर क्यूँ डर लगता है अब गिरजाने से ।


शौर्य शंकर

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