वो बचपन की खुश्गप्पिया वादियों मे ,
शोर -गुल के रंग भरते दुनियाँ के कागज़ पे ।
ये लम्बी खाली गलियाँ बाहें पसारे,
पल मे समेट लेती हमे अपनी आंचल मे ।
जैसे किसी बांझ के आँगन मे ,
किलकारियाँ गूंजी हो कई सालों मे ।
वो खाली मकान खड़े बेरन से,
हर शाम दुल्हन बनती हमारे जाने से ।
दीवार की दरारों से झाँकती नज़रें ,
जैसे दीदार को बेसब्र हो अया न पाने पे ।
गुप्प अँधेरों के जंज़ीरों से लिपटी,
जैसे कोई संगीन सज़ा काट रही हो ज़माने से ।
ज़ीना दर ज़ीना कर आया हूँ ,
पर क्यूँ डर लगता है अब गिरजाने से ।
शौर्य शंकर
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