Saturday, 1 December 2012

सहल नहीं कुछ भी...

मैं, कागज़ और कलम हैं,
नज़रें, क्यों मेरी निश्चल हैं?
                 घूरता एक टक दीवार क्यों ?
                 ज़िन्दगी छिपकली की भी न सहल है .
मैं भुत्लाता सा जा रहा हूँ अब,
अँधेरे पड़े नींद के किसी गाँव में,
                 हर तरफ ठंडी रेत बिछी है,
                 पर ये तो मेरे पलकों की ही छाँव है .
ये रोशिनी किसके नज़रों की है,
रे पगले, ये तो अंधों का गाँव है।
                 फिर ये रोशनी सी क्या है?
                 शायद, चांदनी से भरी कोई नाव है।
देख तो, सपनों के पलंग पर बच्चे बैठे हैं।
वो धूप की पायल पहने, उनके ही पांव हैं।
                 हर बूँद, फिज़ा में उड़ती है यहाँ,
                 झिलमिल करती, इबादत की छांव है।
पानी में जुगनू तैरते हैं यहाँ,
घोड़े करते कांव-कांव हैं।
                 इन्द्रधनुष पर कबसे झूल रहा मैं,
                 अब तो सर नीचे, ऊपर लटकते मेरे पाँव हैं।

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