Wednesday, 6 February 2013

" ना ही अब मैं.."

गली में बजती साईकल की घंटी ,
आज भी मेरा मन खीच ले जाती है।

मेरा मन वही खाखी वर्दी में उसी ,
खादी के झोले वाले आदमी की राह देखता है।

अब ना तेरे ख़त आते हैं,
ना ही अधेड़ उम्र वाला वो डाकिया।

अब न उसकी साईकल की खड़-खड़,
ना ही ट्रिन-ट्रिन मिलने आती है कभी।

ना ही अब मेरी नज़रें कभी खिड़की टाप कर ,
तेरी ख़त के आने की ख़बर ढूंढने जाती है।

ना ही अब मैं दरवाज़ा बंद किये, रात भर,
तेरे भेजे खतों से गुफ्तगू करता हूँ।

ना ही कुछ और काम बचा है अब,
तेरे ख़तों को सहेज के रखने के सिवा।

ना ही वो परिंदे मिलने आते हैं अब ,
ना ही धुप आती है झरोखे तक कभी।

ना ही अब हवा झांकती है कमरे में खामखां ,
ना ही बकरियां आती हैं चौखट तक कभी।

और ना ही छावं सुनती है, कान लगा के अब चुपके से ,
तेरे ख़त में लिखे प्यार के बोलते अल्फाज़ों को।

हाँ कभी-कभी चंदा मामा मिलने आते ,
काली ख़ेस ओढ़े, चुप-चाप भेष बदलकर।

तो कभी आसमान रो देता है बादलों की आढ़ लिए,
तेरे पुराने ख़तों को सिरहाने रख, उदास बैठे देखकर।

कल रात तेरे ख़त गिर पड़े सिरहाने से फिसल कर ,
उनमे से कुछ ही लफ़्ज़ों को सलामत बचा पाया हूँ।

किसी का हाथ टुटा, किसी का पैर तो किसी का सिर फूटा ,
और जो मर गए, उनमे से कुछ को चीटियाँ ले गई उठा के।

जो लावारिस पड़े रहे रात भर,उन्हें दफनाने जा रहा हूँ ,
मेरे तो 69 दिन पुराने हमसफ़र लगते थे, पर तेरा पता नहीं ....


-शौर्य शंकर

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