Saturday, 9 February 2013

"भूल आया हूँ..."

खुद से बातें करते, आज बहुत दूर निकल आया हूँ,
अपने घर का पता भी, मैं भूल आया हूँ।

किनारे की एक छोर पकड़, उसके साथ यहाँ तक चला आया हूँ,
नदी के हाथ में, मैं पते की पर्ची भी भूल आया हूँ।

उन दूर उड़ते परिंदों का इशारा भी, समझ नहीं पाया हूँ ,
क्योंकि आज ऐनक भी मैं, मेज पर ही भूल आया हूँ।

अभी-अभी सुबह को, शाम के सुपुर्द करके आया हूँ,
पता नहीं ज़ल्दी में सिगरेट की डिब्बी, कहाँ भूल आया हूँ।

पानी पे तैरता चाँद, देखो अपने साथ लाया हूँ,
अरे बेवजह ही देर रात, उसे इतनी दूर लाया हूँ।

कई गाँव, रास्ते, पुल, लोग पीछे छोड़ आया हूँ,
वहीँ से पानी पे तैरती,चाँदी की गुलाल मुट्ठी में भर लाया हूँ।

रेत पे चलते नंगे पैरों के निशां, पीछे छोड़ आया हूँ,
उन घिसी चप्पलों को मैं, ना जाने कहाँ फिर भूल आया हूँ।

कोई और चलेगा उन राहों पर कभी ना कभी,
जहाँ अपने नए तिजर्बाओं* को चमकता छोड़ आया हूँ।

ले जायेंगे मेरे पैरों के निशां उन्हें भी वहीँ,
जहाँ अपने सफ़र का एक नन्हा पौधा, मैं बो आया हूँ।

आके बैठूँगा छाँव में मेरे सफ़र के दरख़्त तले,
जहाँ पर मैं अपना सबकुछ ख़्वाबीदा* छोड़ आया हूँ।

बैठूँगा कभी शाख पर तो कभी पत्तों पर,
अपने लिए जीने का यही सबब, साथ लाया हूँ।

खुद से बातें करते, आज बहुत दूर निकल आया हूँ,
अपने घर का पता भी, मैं भूल आया हूँ।



*तिजर्बाओं- तजुर्बा
ख़्वाबीदा - सोये

- शौर्य शंकर

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