Saturday, 2 February 2013

चार दीवारी में लीपटे अँधेरे...

चार  दीवारी में लीपटे अँधेरे में, मै बैठा रहा,
उजाले से क्यूँकर मैं, कोसों दूर जीता रहा .

रोद (धूप) भी रोशनदान से छन के आती रही,
बेवफ़ाई के बने ताले पर धूल को सुलाती रही.

वो हवा भी अँधेरे में मुझे डराती रही,
ज़हन में रखी तेरी तस्वीर को हिलाती रही.

रात-दिन खुद को तुझसे नफ़रत करने को कहता रहा,
पर तेरे नाम को धड़कनो से लगाए रातभर सुनता रहा .

तेरे दिये रुमाल को देखकर मेरा दिल उसे चूमता रहा,
तेरे खुशबू के बिखरे फूल, कई दिनों तक मैं चुनता रहा.

लोगों की हमदर्दी से हर रोज़ मैं खुद को छुपाता रहा,
सब के नफरत से पल-पल मेरा शौर्य बुझता रहा.

पिघले सीसे सा अकेलापन मेरे नसों में बहता रहा,
आँखों से ख़ून के लावे को मैं यूँ ही निगलता रहा.

दर्द भी अब तो दस्तबस्ता* मुझसे गुज़ारिश करती रही,
ये बेइन्तेहा दर्द अब और देर तक झिलती नहीं.

अब घावों में कोई दर्द, कोई टीस रही नहीं,
ये हालत मेरी, मौत से भी क्यूँ देखी गई नहीं...

अरे मौत ने भी मुह फेर लीया है, अब तो,
अब और किसकी रुसवाई को मैं हूँ, मालूम नहीं...

क्यूँ तू मुझ बेइन्तेहा प्यार की मूरत लगी,
और शौर्य तुझे प्यार के काबिल लगा ही नहीं...

*दस्तबस्ता - हथजोड़

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