Saturday, 9 February 2013

भूख भागती है ज़ख़्मी...

भूख भागती है ज़ख़्मी,
अपने चेहरे पे, ग़रीबी का मुहर लगाये।
गली-गली कूंचे-कूंचे, यहाँ से वहां,
हर तरफ, दर-दर भटकती हुई।
राशन कार्ड मुट्ठी में दबाये,
बचती, छुपती, उन इंसानों से,
जो खड़े सिर्फ हँसते हैं,
एक साथ ज़ोर-ज़ोर से,
जिनके आवाज़ की आंधी,
कान में बने घोसले को कबकी उजाड़ चुकी है।
जिसके उजड़ने पर बेघर हो चुका है,
वो सफ़ेद कबूतर का जोड़ा,
जो उड़ने की कोशिश में
उसी बरगद के पेड़ के शाख से जा टकराया है,
जो नुक्कड़ पर, खड़ा है,
हाथ में महंगाई का चाबुक लिए...
जहाँ सर झुकाए लोगों का हुजूम,
ना कुछ बोलने की हिम्मत रखता है,
ना ही कुछ करने की।
जहाँ लोहे से बनी हिम्मत की बेलों में,
शुष्क हवा के कीड़े,
जंग लगा गए हैं,
जो सर उठाने की सोचते भी नहीं,
कि अपना आस्तित्व बचा सकें,
जो ना जाने कबका गर्त में मिल चुका है।

- शौर्य शंकर 

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