खोया सा खुद में ,
अँधेरी सड़कोँ पर .
आस पास का होश नहीं ,
सन्नाटों का गिरेवां चाक किये .
विचारों की दलदल में ,
पैरों का धसते जाना .
जूतों की टापें और
पत्तों की सरसराहट का होश कहाँ .
मिट्टी की ख़ुशबू ही ,
बस हमसफ़र सी लगी .
इन् अँधेरी रातों में ....
नज़र अंदोज़ तो हुए हैं हम ,
क्या, कहाँ ख़बर नहीं .
शायद वो बिलखती रात,
जो बीहड़ में बेवा सी बैठी .
कोह-ए -मातम पर सर पटकती ,
गुप्प अंधेरों की तारीकियों से बचती .
वैहशत-ए-क़ल्क-ए-ख़ून, जोंक की मानंद ,
हर क़तरा इख्तिताम से रुबरु कराती .
दहशत झाँकती चाक -ए -जिगर से ,
करादी ताअर्रुफ़ नूरे आफ़ताब से.
इन् अँधेरी रातों में ....
तर्क कर आब -ए -नज़र , छोड़ दे दर्द -ए -क़हर ,
अश्कों से कर गर्क -ए -सहर .
क्यों डरती है फुफकार से ,
डंका बजा तू अपने ललकार से .
चल उठ निडर , हो के बेख़तर ,
ठहरा है कब मश्क़ -ए -बहर .
मुनतज़िर ना हो तुलु-ए-सहर का कदम बढ़ा-ए-बशर,
तेरा "शौर्य" गवाही देगा इस कायनात को .
इन् अँधेरी रातों में ....
शौर्य शंकर
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