Saturday, 25 August 2012

" इन् अँधेरी रातों में ...."



खोया सा खुद में ,
      अँधेरी सड़कोँ पर .
आस पास  का होश नहीं ,
      सन्नाटों का गिरेवां चाक किये .
विचारों की दलदल में ,
      पैरों का धसते जाना .
जूतों की टापें और 
      पत्तों की सरसराहट का होश कहाँ .
मिट्टी की ख़ुशबू ही ,
      बस हमसफ़र सी लगी .
इन्  अँधेरी रातों में ....


नज़र अंदोज़ तो हुए हैं हम ,
        क्या, कहाँ ख़बर नहीं .
शायद वो बिलखती रात,
        जो बीहड़ में बेवा सी बैठी .
कोह-ए -मातम पर सर पटकती ,
        गुप्प अंधेरों की तारीकियों से बचती .
वैहशत-ए-क़ल्क-ए-ख़ून, जोंक की मानंद ,
        हर क़तरा इख्तिताम से रुबरु कराती .
दहशत  झाँकती चाक -ए -जिगर से ,
       करादी ताअर्रुफ़ नूरे आफ़ताब से.
इन्  अँधेरी रातों में ....


तर्क कर आब -ए -नज़र , छोड़ दे दर्द -ए -क़हर ,
       अश्कों से कर गर्क -ए -सहर .
क्यों डरती है फुफकार से ,
       डंका बजा तू अपने ललकार से  .
चल उठ निडर , हो के बेख़तर ,
       ठहरा है कब मश्क़ -ए -बहर .  
मुनतज़िर ना हो तुलु-ए-सहर का कदम बढ़ा-ए-बशर,
      तेरा "शौर्य" गवाही देगा इस कायनात को .  
इन्  अँधेरी रातों में ....




शौर्य शंकर 



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