Wednesday, 15 August 2012

" खयाले आज़ादी "

खयाले  आज़ादी .....

मुझे अफ़सोस करते मुदत्त हो गई हैं ,
कि मैं सोचता हूँ, अपने मुतल्लक।

अब सहर की ख्वाइश करता हूँ ,
पर शब-ए-चाँद से ही तस्सबुर-ए-सहर करता हूँ।

खुशी की एक अया पाने की ख्वाइश में, मैं 
क्यों नहीं एक आना भी वक्फ कर पाता हूँ?

मुझे क्या ज़रूरत है कुछ करने की ,
हर अदना चीज़, बाज़ार से खरीद लाता हूँ।


मेरी ज़िन्दगी, सिर्फ मेरी ही नहीं है,
फिर क्यों अपने माँ से भी पोशीदा रहने लगा हूँ?

यही कमी शायद आज की नस्ल रखते हैं,
कुतुबखाने में भी, सोच को महदूद करते हैं।

एक कतरा भी अब बांकी नहीं, वक्फ के लिए ,
गैरत से वाकिफ़ ही तो नहीं हुआ करते हैं।

जब गैरत से रूबरू ही नहीं हुए कभी, तभी तो  
पाकीज़ा आबरू को सरे आम, बेआबरु किया करते हैं।

अरे बेवकुफों, ये बेईज्ज़ती  तुम एक माँ की कर रहे हो,
ऐसे ही होते हैं जो, खुद की माँ की आबरु भी बेच दिया करते हैं।

जो अपनी माँ के दामन को सर-ए-आम तार-तार कर दें,
धरती माँ की आबरु नीलाम करने से, क्या परहेज करेंगे?

अब तो घिन्न होती है, ऐसी नई नस्ल से मुझे,
पर मैंने कर्तव्यों की मशाल रोशन कर ली है, इसे बदलने को।

हमें आज़ादी तो अंग्रेजों से मिल गई है, पर
गुलामी आज भी अपने मन की किया करते हैं। 
.
लो कर दी इब्तिदाह-ए-मश्क़-ए-सुखंविर हमने , 
अब उस ऊरूज तक ले के जाना है, "शौर्य" अपना।



3 comments: