Sunday, 18 November 2012

सच में कुछ भी पता नहीं...

आज निकला हूँ कुछ ढूंढ़ने,
चल रहा हूँ ,और जाना है कहाँ,
सच में , कुछ भी पता नहीं...

अथाह अँधेरी रातों में तारों का पीछा क्यों,
क्या पाने की ख्वाहिश में, सांसों का पीछा करता हूँ,
सच में , कुछ भी पता नहीं...

मैं हूँ इसलिए जीता हूँ, या जीता हूँ क्योंकि मैं हूँ,
किन खुशियों के गाँव का पता ढूंढता रहता हूँ,
सच में कुछ भी पता नहीं...

क्यों हवा से घबराता हूँ, और कभी अकेलेपन में सारा जहाँ पा जाता हूँ,
क्यों अब हर एक छोटी सी आहट होने पर भी .....मैं अब, जग जाता हूँ,
सच में कुछ भी पता नहीं...

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