Sunday, 18 November 2012

आज अन्तरंग में आके...

आज अन्तरंग* से रू-ब-रू हुए, मुझे कुछ ऐसा लगा,
जैसे कुम्भ के मेले में बिछड़ा भाई मुख़ातिब हुआ है।
जैसे यहाँ का जर्रा-जर्रा मुझे जानता हो मुद्दतों से।
यहाँ का वास्तु, शिल्प, ईमारत सब अपने से हैं,
जिन्हें मैं महसूस करता हूँ, मन के रोम-रोम से।
आज अन्तरंग में आके...

स्वर्ग सा दिखता बड़े तालाब के साहिल पे खड़ा है,
पता नहीं क्यों इसे सब, बस एक ईमारत कहते हैं।
मुझे तो इसमें दिल, धड़कन और जान सी महसूस होती है,
जो बात करती है, आप दुःख सुख कभी बांटो तो सही।
आज अन्तरंग में आके...

ये मंच मुझे ऐसा लगा, जैसे माँ की गोद हो,
जिस पर चलते लगा, आवाज़  देके बुलाती हो मुझे।
बिना कुछ खाए भी मुझे, शक्ति का अम्बार मिला  है।
जो हर लम्हा कहती है, मेरी छाती से लिपट जाना अगर डर लगे,
भले तुझे दूध ना पिलाया हो, पर माँ तो हूँ ना ,मैं तेरी।
आज अन्तरंग में आके...

जो कहती है तू कर कर्तव्य यहाँ, मैं हूँ न सराहने को तुझे,
डर मत विपदाओं से, मैं हूँ न तुझे सँभालने को।
बेझिझक कर जो चाहता है, मैं हूँ ना तालियों की गूँज बढाने को।
डर के गर्दन पर चढ़ बैठ, मैं हूँ ना तुझे राज्य-तिलक लगाने को।
अजेय बन जीत जग को, मैं हूँ ना तेरा शौर्य उस ऊँचाइयों तक ले जाने को।
आज अन्तरंग में आके...

*अन्तरंग - भोपाल का एक माना हुआ थिएटर स्टेज।

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