Tuesday 16 October 2012

खाली गलियाँ..




वो बचपन की खुश्गप्पिया वादियों मे ,
शोर -गुल के रंग भरते दुनियाँ के कागज़ पे ।

ये लम्बी खाली गलियाँ बाहें पसारे,
पल मे समेट लेती हमे अपनी आंचल मे ।

जैसे किसी बांझ के आँगन मे ,
किलकारियाँ गूंजी  हो कई सालों मे ।

वो खाली मकान खड़े बेरन से,
हर शाम दुल्हन बनती हमारे जाने से ।

दीवार की दरारों से झाँकती नज़रें ,
जैसे दीदार को बेसब्र हो अया न पाने पे ।

गुप्प अँधेरों के जंज़ीरों से लिपटी,
जैसे कोई संगीन सज़ा काट रही हो ज़माने से ।

ज़ीना दर ज़ीना कर आया हूँ ,
पर क्यूँ डर लगता है अब गिरजाने से ।


शौर्य शंकर

कब से ....


मैं दिल की खिड़की पर बैठा हूँ ,
कब से, तेरी एक अया पाने को ।

मैं धूप की आढ़ मे खड़ा हूँ ,
कब से, तूझे पलकों से छू जाने को ।

मैं हवा मे रूई सा बहता हूँ ,
कब से , तेरी पल्लू की महक पाने को । 

मैं नींद बना जगता हूँ ,
कब से , तेरी ख़्वाब मे आने को । 

मैं हर हर्फों मे गुदा हूँ ,
कब से , तेरी ज़ुबा छू जाने  को ।

मैं इबादत बना फिरता हूँ ,
कब से, तेरी रूह मे समाने को ।

मैं काजल बना चिपका हूँ ,
कब से , तूझे बुरी नज़र से बचाने को । 

मैं तेरी खुशी मे महकता हूँ ,
कब से, तेरी बलाई लवों पर आने को ।

मैं दिन-रात तेरा ही नाम जपता हूँ ,
कब से , तेरी मुहोब्बत मे ख़ुदा पाने को ।

मैं तेरी ख़ून मे गुलाब सा रहता हूँ ,
कब से , तेरी रग-रग मे समा जाने को ।


शौर्य शंकर 

कुछ सवाल



लहुलुहान ये मिट्टी, 
ये  अलाव में मकान।
ये चीखें है किसकी ,
ये कटी है क्यूँ जुबान ।
सन्नाटों की ये फिज़ा, 
क्या दहशत की है छाँव?
ये बेगैरत जदा गाँव ,
लाशों पे क्यूँ रखा है पाँव?
ये सरहदों के नासूर ज़ख्म  ,
मुर्दे भी मांगते है यहाँ कफ़न ।

Monday 15 October 2012

"किताब"


तुम्हारी किताब जो मेरी  मेज़  पर रखी है ,
उसमे रखा गुलाब सुख गया है ।
                हर एक पन्ने से आती खुशबू ,
                 ये खुशबू तेरी  है या गुलाब की ।

मुद्दतों बाद मैंने एक अया पाई है ,
इस किताब मे अपने बिसरे यादों की ।
               तुम्हारी बातें , नटखट इरादे और  सादगी,
               सब सैंत के रखा था, दिल की तिजोरी मे ।

वक़्त के जालों मे लिपटी ,दबी सी  ,
एक कोने मे भुलाई पड़ी थी कब से ।
               सदियों बाद ही सही गठरी खोली है ,
                आज गुस्ताखी की, यादों के बुत मे जान फूकने की ।
इस वक़्त के पहिये की रफ्तार कुछ ज्यादा ही है ?
हज़ारों पन्नों की ज़िंदगी , एक पल के पुड़िया मे रखी थी ।
               कभी रो देता हूँ उन हसते यादों मे ,
               कभी हस देता हूँ उन रोती  यादों पे ।
छु हो गई  ,एक चुटकी  मे कहीं ,
ज़िंदगी थी ,चलो कल की ही सही ।
             वो याद है तुझे , कैंटीन मे मेरा चिढ़ाना,
             फिर बिना बात के दोस्तों से मुझे पिटवाना ।
वो तेरा चिढ़ना, मेरा चिढ़ाना ,
मेरे लंबे बालों मे तेरा उँगलियाँ फिराना ।
             घनी दाढ़ी ,जीन्स ,कुर्ता और कोल्हापुरी चप्पल ,
             यही वो दिन थे जब मैं ,मैं हुआ करता था ।
हर पल साथ रहना आदत सी थी हमारी,
क्या पता था , इस पर भी वक़्त की मिट्टी जम जाएगी ।
            हर चीज़ पे हसना , बहस करना  फिर बात मनवाना ,
           सच , हम किसी की भी नहीं सुनते थे ना ।
वो क्या था हम दोनों के बीच नहीं पता ,
शायद इसीलिए कि हम, ना-समझ बच्चे थे ना ।
           पर कुछ  खास तो था उस बचपन मे ,
           तभी तो एक टीस है अभी भी इस मन मे ।
वो प्यार , वो दर्द आज समझ पाया हूँ ,
शायद यही सज़ा है मेरी , जहां हूँ ....... भटकता आया हूँ ।
            आज भी वो किताब मेरे पास रखी हैं ,
            जो मेरी बेवकूफ़ियों से मुझे रूबरू कराती है।
जिसमे तुम्हारी स्नेह की स्याही रची है,
जिसमे तुम्हारे प्यार के लफ़्ज़ गूदे हैं ।
             जिसमे मेरी गुनाह और नासमझी के पन्ने हैं,
            तेरे आँसू और कराह की जिल्द चढ़ी है ।
काश ये किताब कोरी हो जाती फिर से ,
मैं इसे प्यार के सुनहरे स्याही से ,फिर सजाता ।



शौर्य शंकर


साया मेरा


ये चलते कौन आगे निकल गया ,
             जो पीछे होने का एहसास दे गया मुझे ।
चल तू आगे निकल इससे  सोचता हूँ ,
              पर वो तो धुंध हो गया .............
वो कौन है  ,वहां सड़क के किनारे ?
              ऐसे क्यों बैठा है पेड़ के सहारे ? 
शायद ...शराबी है मदहोश ,
              अपना सा दीखता ,पर क्यूँ बैठा  है खामोश  ?
चलूँ  देखूं तो सही , है कौन  ? 
              पर गदली मंद रौशनी में दीखता भी तो नहीं ।
औंधे मुह पड़ा बड़बड़ा रहा कुछ अब ,
               ये आवाज़ तो सुनी है , पर कब ।
कभी हँसता ,कभी रोता , कौन है ये ?
               ज़हनी मशक्क़त कर रहा , कब से ।
उसे पलट पुछा , कौन हो भई ?
               हालत देख ,रूह मेरी मुह तक चली आई ।
ख़ून से लतपत जिस्म  उसका ,
              जैसे हर रोम चिन्घाढ़ रहा ...मदद को ।
पुछा  क्या हुआ तुझे  ,
            " ज़िन्दगी  के थपेड़ो के जख्म है ये " ।
 पर  अपने ज़ख्मों को देख़  हँसता क्यूँ  है ?
               पागल है शायद ,अब तो शुबा  है ये   ।
गोद मे उठा, ले चला दवाख़ाने  की ओर ,
               एक अजीब सी खुशी थी, जब देखा उसके चेहरे की ओर ।
जिस्मानी मशक़्क़त देख आँख भर आई,
रोता है क्यूँ तू ,यही तो ज़िंदगी है मेरे भाई ।
खुशी बेवफ़ा-सी , पल दो पल ही साथ थी ,
दुख की दोस्ती है ,जो साथ चलती है आई ।
अचानक सांस उखड़ने सी लगी, मेरी यों ,
               उसने कहा कुछ देर तू रुकता नहीं, क्यों  
सड़क किनारे पुलिया पर बैठ साथ उसके,
               उखड़ती बेचैन साँसों  को मैं समेटने लगा । 
देख मुझे वो बोला हिम्मत की पगड़ी बांध ,
               होसले के पंख फड़फड़ा , डर पे नकेल लगा ।
ये कह नम आँखों से मुझसे लिपट गया,
               मुट्ठी मे बंद रेत  सा पल मे फिसल गया ।
उसकी कराह क्यूँ महसूस होने लगी ,
               हर लम्हा रुई  सी हवा मे बहने लगी । 
आँख खोली ....उसका नामो निशां न था ,
              हर ज़र्रे से , पल मे वो फनाह सा था ।
उसकी आवाज़ ज़हन मे दस्तक दे रही थी,
              दरवाज़ा खोल देखा कोई भी खड़ा न था ।
उदास दिल की उँगली थामे चल पड़ा ,
              ला-इलाज ज़ख्म यादों की मुझे वो दे गया ।
हर लम्हा क्यूँ अजगर सा चिपटा है?
              क्यूँ आईने मे वो मुझे दिखता है ?
पाकीज़ा इबादत सा मुझमे घर कर गया ,
              ख़यालों मे उसकी बातों का किला दिखता है ।
ये कौन है ! कोई फरिश्ता तो नहीं ,
             साया हूँ मोहसीन ,मुख़ातिब जुर्रत-ए-मुख्तार  को ।


शौर्य शंकर 

" कदम "

 


उन नन्हे-नन्हे  कदमों पर ,
     जो ज़मीन पर जमे न थे .

हरकत तो थी उनमे ,
    पर काबिल बने न थे .

उम्मीदों के बोझ भी अब तक ,
    जिसने कभी सहे न थे .

अभी -अभी चलने शुरू किये ,
    पर ठीक से कहीं पड़े न थे .


शौर्य शंकर