Friday 15 March 2013

सुनहरे पंख


कुछ और धुंधले होते जा रहे है


वो रंग, पुरानी यादों के मेरे


कुछ ही रंगों का अस्तित्व बचा है बाकी


सब सफ़ेद या स्याह से लगते हैं अब तो।






मिटटी के बने वो घर, सफों में


गोबर से लिपे आँगन और बरामदे


राख़ से माँजे हुए साफ़-सुथरे बर्तन


जिस पे धुप अपने सुनहरे पंख, छोड़ गई है।






कल ढूंढते वापिस आयेगी, इसी रसोईघर में


जहाँ गेहूँ में लगे घुन के डर से


मिटटी के कोठरी पे चढ़ बैठी थी।






सीक पे टंगी मटकियों से; दही चुराई थी


और हड़बड़ाहट में, कोठरी से उतरते हुए


तखत पे रखा, अचार का बोयाम गिराया था।






जल्दी में कभी सिलबट्टे से बचती


कभी किवाड़ के पास रखी ओखली से


चूल्हे के आढ़ में बेसुध पड़ा वो लोटा


तेल से बने पैरों के, निशान झाँकता।






आंगन में चटाई पे सूखती, वो बड़ियाँ


तेल से सने पंजों को देख, चीख पड़ी


तभी हवा जो बरामदे में पड़ी खाट पे


दुनिया से बेखबर सो रही थी, घबरा के उठी


तो एक साया सिरहाने से भागता दिखाई पड़ा।




शौर्य शंकर









"मेरा मन कुछ दिनों से अकेले शहर घूम आता है "

मेरा मन कुछ दिनों से,
 अकेले शहर घूम आता है
ये बावला सा है कुछ ,
 मेरी बात सुनता ही नहीं।

किवाड़ पे दस्तक होते ही,
 रात का आँचल पकड़े, निकल पड़ता है
पूरी रात इधर-उधर,
 खाली डब्बे सा बेवजह ही घूमता रहता है ।

कभी किसी ठिठुरते बुढे को
अपने स्नेह की चादर ओढा आता है 
तो कभी उन् कोने में लाचार पड़े
 अंधेरे को, सड़क पार करवाता है।

 और जब डूबते बचपन को
नशे के भयानक भवर से बचाने जाता है,
 तो गिद्ध से घूरते,
 उन् खुंखार निगाहों पे लगे मुखौटे से, डर जाता है।

ये उतावला मन बेचैन है; कब से,
 किसी हिरन के बच्चे की तरह 
जो हर एक छोटी सी आहट पे
 आँख मीचे कोने में दुपक जाता है।

 कुछ देर बाद ही सही
पर दिल के आँगन में खुलती खिड़की से 
बच्चों के पायल की किलकारियों को सुन
 हल्का सा ही सही, पर मुस्कुराता है। 

उसके चेहरे पे खिची काँटों वाली
तारों की सरहद से चोरी -छुपे
 कोई असला-बारूद लिए, घुसता है,
 और एक पल में, कही छु हो जाता है। 

माथे पे पसीने की बूंदे
अब  कुछ ऐसे दिखते है 
जैसे खिड़की के कांच पे सरकती
 बारिश की बूँदें हों, धीरे-धीरे।

 और एक कोने से मुसलसल झांकती हैं,
 मन के अन्दर, चुपचाप
  जैसे कुछ कहना चाहती हो ,
 कोई दुःख, बांटना चाहती हो मुझसे। 


तभी किसी ने,
देसी तमंचे से एक गोली दागी,
वो ज़ख़्मी मोर तड़पता पिछली गली में
 बिन रहा था; अपने बिखरे साँसों के टुकड़ों को।  

जो बार-बार उठने की
नाकाम कोशिश कर रहा था 
आखिरकार कामयाब तो हुआ,
 पर, मरने के बाद। 

पुलिस आई है अभी
पूछताछ को गली में
तमंचे को लिए,
 जिसपे खून से सने उँगलियों के, निशाँ मिले हैं।

आज कल खौफ़
 खुले आम घूमता है शहर में 
लोगों को डराता हैं आते-जाते,
 बेख़ौफ़ रात-दिन। 

उन्ही सकरी गलियों में
अब खौफ़ के कुत्ते भी गुर्राते है 
खूनी पंजो से खरोच के समझाते हैं,
अपना मुह बंद रखने को।

 अब तो ओस भी
 तेज़ाब बन गिरती है पत्तों पे 
कोयल ने गाना, गाना
कब का छोड़ दिया है यहाँ। 

गौरैया भी शहर से
पलायन कर गयीं हैं,
अब बच्चों के रगों में भी
खौफ़ बहने लगा है यहाँ।

खौफ़ की फसल होती है
खौफ़ ही खेतों में उगते है यहाँ 
अब खौफ़ ही खाते और पीते हैं,
लोग यहाँ। 

अब ना ही
मेरा मन बेख़ौफ़ रहा 
ना ही घर से निकलता है कभी कहीं,
 पहले की तरह ..    



-शौर्य शंकर