Sunday 30 December 2012

" तनहाई में....."


तनहा था ,
तनहाई में फिरता था,
रास्तों से लड़ाई थी ,
कुछ क़दमों की ........

तनहा  था ,
तनहाई  में रोता था ,
आंसूओं से बेरूखी थी ,
कुछ लम्हों की .....


तनहा था ,
तनहाई में बैठता था ,
कुत्ते से याराना था ,
कुछ घंटों का ......


तनहा  था ,
तन्हाई में देखता था ,
उस लड़की से मोहब्बत थी ,
कुछ मिनटों की .....

तनहा था,
तन्हाई में लिखता था ,
उन् हर्फ़ों से ताररुफ़ थी ,
कुछ सफों की ....

तनहा था ,
तनहाई से खेलता था ,
मुंगफली से दोस्ती थी ,
कुछ 3 घंटों की .....



शौर्य शंकर

Monday 24 December 2012

"मेरी माँ "


जब कभी मैं उलझता हूँ खुद से ,
मेरी ऊँगली पकड़ सुलझाती है , मेरी माँ ...

जब कभी मुझे ठेस कोई लग जाती है ,
ज़ख्म से निकलते ख़ून को देख कराहती है, मेरी माँ ...

जब कभी मैं जीवन की आपा-धापी से थक जाता हूँ,
अपने गोद में मेरा सर रख सुलाती है ,मेरी माँ ....

जब कभी मैं देर रात घर आता हूँ ,
पलकें बिछाए मेरी राह- तक जगती  है ,मेरी माँ ....

जब कभी मैं निराशा की रात में गुम होने लगता हूँ ,
नई उम्मीद की सुबह से रूबरू कराती है ,मेरी माँ .....

जब कभी दुनिया की कड़वाहट से जी उब जाता है मेरा ,
अपने प्यार से लिपटी मिशरी की डली खिलाती है ,मेरी माँ .....

जब कभी लोगों की बातें रूह तक छेद जाती है ,
मेरी पीड़ भी उधार ले जाती है ,मेरी माँ .....

जब कभी ज़िन्दगी की झुलसती धुप में पैर जलते है  मेरे ,
पैरों के छालों पर मल्हम लगाती है ,मेरी माँ ....

जब कभी बुरी नज़रें राह घेर लेती है मेरा,
काजल बन उनसे भी लड़ जाती है ,मेरी माँ .......



शौर्य शंकर

Saturday 1 December 2012

जब मैं पैदा हुआ...

एक टक देखता, यहाँ-वहाँ।
सबकुछ, बिलकुल था नया,
देखूं जहाँ।

अनसुनी आवाज़े हर तरफ,
कभी न पहले देखे थे,
वो चेहरे।

सब पता नहीं,
क्यों खुश थे?
आँखे चमकती, घूरती, बड़ी-बड़ी, इधर-उधर,
सबकी ख़ुशी से।

हर तरफ,
आवाज़ के कुछ सिक्के,
खनकते, गिरते, लड़ते-झगड़ते से, बातें करते;
कुछ इस तरह, जैसे,
बधाई हो! बधाई हो! बधाई हो!!!

ये सबकुछ मेरी समझ से,
बिलकुल था परे।
मैं तो बस मुस्कुराता,
उन अजीब से चेहरों को देखकर।
जो बड़े डरवाने से लगते,
हँसते, नाचते, शोर करते।

सहल नहीं कुछ भी...

मैं, कागज़ और कलम हैं,
नज़रें, क्यों मेरी निश्चल हैं?
                 घूरता एक टक दीवार क्यों ?
                 ज़िन्दगी छिपकली की भी न सहल है .
मैं भुत्लाता सा जा रहा हूँ अब,
अँधेरे पड़े नींद के किसी गाँव में,
                 हर तरफ ठंडी रेत बिछी है,
                 पर ये तो मेरे पलकों की ही छाँव है .
ये रोशिनी किसके नज़रों की है,
रे पगले, ये तो अंधों का गाँव है।
                 फिर ये रोशनी सी क्या है?
                 शायद, चांदनी से भरी कोई नाव है।
देख तो, सपनों के पलंग पर बच्चे बैठे हैं।
वो धूप की पायल पहने, उनके ही पांव हैं।
                 हर बूँद, फिज़ा में उड़ती है यहाँ,
                 झिलमिल करती, इबादत की छांव है।
पानी में जुगनू तैरते हैं यहाँ,
घोड़े करते कांव-कांव हैं।
                 इन्द्रधनुष पर कबसे झूल रहा मैं,
                 अब तो सर नीचे, ऊपर लटकते मेरे पाँव हैं।

चलो जहाँ...

चलो जहाँ,
               चाँद की रोशनी हो,
               तारों की बातें हों।
                            भूतों के सपने हों,
                            परियों की यादें हों।
               कोई अनसुनी कहानी हो,
               जहाँ बचपन सी रवानी हो।


चलो जहाँ,
               रेत पर चलते छोटे नंगे पैर हों,
               हाथ में लटकाए जूते हों।
                            पैरों की हलकी निशानी हो,
                            किसी की उंगली हमने थामी हो।
               चारों तरफ बहता पानी हो,
               और नाव ,उस पार ले जानी हो।


चलो जहाँ,
               ख़्वाबों का काफ़िला हो,
               खुशियों की जवानी हो।
                            हवा कुछ सुहानी हो,
                            बादल भी दीवानी हो।
               मिटटी की प्रेम कहानी हो,
               और उस पर उमर बचकानी हो।