Sunday 25 November 2012

तू...

मेरे रोम-रोम में समाई है,
              मेरी रूहानी परछाई है , तू।
मेरी ज़हन में फैली ग़फलत है,
              मेरा हाथ थामे चलती मज़हब है, तू।

मेरे नब्ज़ में बहते ख़ून की रवानी है,
              मेरे एहसासों की जीती-जाती कहानी है, तू।
मेरे प्यार के बुत की ताक़त रूहानी है,
              ख़ुदा के इबादत की मुहँ-ज़ुबानी  है,  तू।

मेरे हर साज़ में बजती राग-भोपाली है,
              मुझमें हर पल खिलती जवानी है,  तू।
मेरे दिल के झरने से बरसती अमृत का पानी है,
              गंगा किनारे की, कोई सुबह सुहानी है , तू।



Sunday 18 November 2012

आज अन्तरंग में आके...

आज अन्तरंग* से रू-ब-रू हुए, मुझे कुछ ऐसा लगा,
जैसे कुम्भ के मेले में बिछड़ा भाई मुख़ातिब हुआ है।
जैसे यहाँ का जर्रा-जर्रा मुझे जानता हो मुद्दतों से।
यहाँ का वास्तु, शिल्प, ईमारत सब अपने से हैं,
जिन्हें मैं महसूस करता हूँ, मन के रोम-रोम से।
आज अन्तरंग में आके...

स्वर्ग सा दिखता बड़े तालाब के साहिल पे खड़ा है,
पता नहीं क्यों इसे सब, बस एक ईमारत कहते हैं।
मुझे तो इसमें दिल, धड़कन और जान सी महसूस होती है,
जो बात करती है, आप दुःख सुख कभी बांटो तो सही।
आज अन्तरंग में आके...

ये मंच मुझे ऐसा लगा, जैसे माँ की गोद हो,
जिस पर चलते लगा, आवाज़  देके बुलाती हो मुझे।
बिना कुछ खाए भी मुझे, शक्ति का अम्बार मिला  है।
जो हर लम्हा कहती है, मेरी छाती से लिपट जाना अगर डर लगे,
भले तुझे दूध ना पिलाया हो, पर माँ तो हूँ ना ,मैं तेरी।
आज अन्तरंग में आके...

जो कहती है तू कर कर्तव्य यहाँ, मैं हूँ न सराहने को तुझे,
डर मत विपदाओं से, मैं हूँ न तुझे सँभालने को।
बेझिझक कर जो चाहता है, मैं हूँ ना तालियों की गूँज बढाने को।
डर के गर्दन पर चढ़ बैठ, मैं हूँ ना तुझे राज्य-तिलक लगाने को।
अजेय बन जीत जग को, मैं हूँ ना तेरा शौर्य उस ऊँचाइयों तक ले जाने को।
आज अन्तरंग में आके...

*अन्तरंग - भोपाल का एक माना हुआ थिएटर स्टेज।

आज भी जब मैं...

आज भी जब मैं तुझे याद करता हूँ,
देर रात अपनी बुलेट पर,
तेरी यादों के साथ कहीं घूम आता हूँ।

आज भी जब तेरी हंसी याद करता हूँ,
वही उलटे मोज़े पहनकर,
कहीं दूर तक हो आता हूँ।

आज भी जब किसी जोड़े को देखता हूँ,
धड़कन ओढ़ तेरी गोद में,
कुछ देर सो जाता हूँ।

आज भी जब तुझे कुछ कहने की कोशिश करता हूँ,
तेरे नाम ख़त लिख,
तेरे पुराने पते पर छोड़ आता हूँ।

आज भी जब तुझे बारिश में भीगते महसूस करता हूँ,
तेरी भीगी खुशबुओं से लिपट के,
अपने मन को भिगो लाता हूँ।

आज भी जब तेरी आँखों को टिमटिमाते देखता हूँ,
चाँद पर सीढ़ी रख,
तेरे पलकों को चूम आता हूँ।

आज भी जब तुझे सपनों में देखता हूँ,
बादलों पर चढ़ तुझे,
अपनी आँखों में बटोर लाता हूँ।

सुबह-सवेरे...

भोर की मन्द पुंज,
                            फूलों की भीनी महक,
ओस की ठंडी बूँदें,
                            चिड़ियों की मोहक चेह्चहाहट,
मुर्गे की पहली बांग,
                            वो ठंढी शीतल रेत,
कुहासों से ढंका पग,
                            झींगुर की तेज आवाजें,
वो मवेशियों का शोर,
                            चौकीदार की सीटियाँ,
हाथ में पीतल का लोटा,
                            वो सरपट भागती सी चाल,
पतली पगडण्डी का पीछा,
                            पहुंचे बीहर के पार,
आँखें दौड़ती हर ओर,
                            वखत आन पड़ा घनघोर,
अब लोटा धर भाग लिए,
                            जा बैठे पेड़ की ओट,
बमबारी हुई बहोत जोर,
                            कुछ गंध पहचानी सी,
गाने भी गुनगुनाये वहां,
                            इमारते बनती गयी कारवां बढ़ता गया,
रवानगी ली नदी की ओर,
                            तोडा नीम का छोटा सा छोर,
मांज लिए दांत भी अब तो,
                            लोटा घिस साफ़ किया,
डुबकी मारी गंगा की गोद,
                            चंचल धारा निर्मल मन,
तन-मन भी धो लिए हम,
                            जनेऊ पकड़ साक्षात् खड़े,
सूर्य के जल अर्पण को,
                            माँ गंगे का नाम जपे,
जल भर चले मंदिर की ओर,
                            मंदिर के पवित्र दर्शन को,
मन को जगाती घंटियाँ,
                            आत्मा को महकाती अगरबत्तियां,
जो खीचे मन को अपनी ओर,
                            पुष्प और बेलपत्र लिए तोड़।
चल दिए अब भोले की ओर,
                            सीढियां चढ़ते हो गयी भोर।
सूरज मल चन्दन धूप की,
                            लगा आराधना करने अति जोर।
मैं भी पीछे क्यों रहूँ, लोटा धर,
                            पुष्प रखा, बेलपत्र ले आगे बढ़ा।
चारों ओर मन्त्र की गूँज,
                            जल चढ़ा शिव स्वक्ष किया।
पुष्प बेलपत्र अर्पण किया,
                            फिर शिव पे चन्दन का लेप।
हाथ जोड़ खुद धन्य हुआ,
                            तन और आत्मा पवित्र किया।
शांत मन ले चला,
                            अब अपने घर की ओर।

सच में कुछ भी पता नहीं...

आज निकला हूँ कुछ ढूंढ़ने,
चल रहा हूँ ,और जाना है कहाँ,
सच में , कुछ भी पता नहीं...

अथाह अँधेरी रातों में तारों का पीछा क्यों,
क्या पाने की ख्वाहिश में, सांसों का पीछा करता हूँ,
सच में , कुछ भी पता नहीं...

मैं हूँ इसलिए जीता हूँ, या जीता हूँ क्योंकि मैं हूँ,
किन खुशियों के गाँव का पता ढूंढता रहता हूँ,
सच में कुछ भी पता नहीं...

क्यों हवा से घबराता हूँ, और कभी अकेलेपन में सारा जहाँ पा जाता हूँ,
क्यों अब हर एक छोटी सी आहट होने पर भी .....मैं अब, जग जाता हूँ,
सच में कुछ भी पता नहीं...

चलूँ जहाँ मैं...

चलूँ जहाँ मैं...
                     खुल के जी सकूँ,
                            दम भर साँस ले सकूँ।
                     हवावों को छू सकूँ,
                            कुछ महसूस कर सकूँ।
                     पानी पे चल सकूँ,
                            बारिश में मन भिगो सकूँ।
                     लहरों से लड़ सकूँ,
                            इन्द्रधनुष को छेड़ सकूँ।
                     बादलों में छुप सकूँ,
                            आसमान पर चढ़ सकूँ।
                     सूरज को आलिंगन में भर सकूँ,
                            धूप के साथ खेल सकूं।

चलूँ जहाँ मैं...
                     आँखों को पढना सिखाऊँ,
                            पैरों को सम्भलना सिखाऊं।
                     हाथों को फड़फड़ाना सिखाऊं,
                            उँगलियों को छूना सिखाऊं।
                     दिल को मचलना सिखाऊं,
                            उम्मीदों को उड़ना सिखाऊं।
                     मन को सुकून चुगना सिखाऊं,
                            दर्द को मुस्कुराना सिखाऊं।
                     सोच को तेज़ बहना सिखाऊं,
                            भूख को भर पेट खाना सिखाऊं।
                     हौसले को अडिग बनना सिखाऊं,
                            आत्मा को 'शौर्य' बनना सिखाऊं।

शौर्य शंकर

याद...



यादों के गहरे अँधेरे कुएँ में,
आज तेरी तस्वीर मिली।

रंग-बिरंगी तितलियों के पीछे भागते,
आज तेरे लिखे ख़त हाथ लगे।

सड़कों का पीछा करते अपनी बाईक पे,
आज तेरे हाथ, मुझे समेटते महसूस किये।

पूजा के फूल खरीदते हुए मैंने,
तेरे बदन की खुशबू की एक अया है पाई।

ठंडी रात में सिकुड़ के सोते हुए,
आज तेरी सुकून भरी गोद की याद आई।



शौर्य शंकर 

हम सदा ही मुस्कुरायेंगे...

चलो आज एक वादा करें,
हमेशा खुश रहने की,
चाहे परिस्थितियां हों कुरूप,
                                         हम सदा ही मुस्कुरायेंगे।

चाहे दिन हो या रात,
हम दूर हों या पास,
अकेले हों या सबके साथ,
                                         हम सदा ही मुस्कुरायेंगे।

कोई थक जाये, तो अपना हाथ थमाएंगे,
कोई गिरे, तो हम उसे उठाएंगे,
हर एक डर को, दिल से खदेड़ भगायेंगे,
                                         हम सदा ही मुस्कुरायेंगे।

दुःख की रात में चल कर,
सुख का सूरज पाएंगे,
पर्वत चीर अब तो, राह बनायेंगे,
                                         हम सदा ही मुस्कुरायेंगे।

एक-एक दुःख के ईंटों में,
मेहनत का गारा लगायेंगे,
तब सपनों का महल बनायेंगे,
                                         हम सदा ही मुस्कुरायेंगे।

कई सालों बाद...

आज खुद को महसूस किया है,
        पलकों पर पड़े धुल हटाये हैं आज,
                                                          कई सालों बाद...

आज आँखों से रंगों की खनक छुई है,
         कान जो चुप सहमी थी, मुस्कुराई है आज,
                                                          कई सालों बाद...

आज पथराये होंठ जो तेरे होंठो की छुवन से उठ बैठे हैं,
        मेरा दिल जो दफ़्न था ग़मगीन समंदर तले, उसने भी कई राग गए हैं आज,
                                                          कई सालों बाद...

आज सोचा शायद पहले मैं सिर्फ साँस ही लिया करता था,
         पर आसमान से ज़िन्दगी की गहराई में कूदा हूँ आज,
                                                          कई सालों बाद...

आज महसूस किया कि एक-एक सिक्के ख़ुशी के बिनते, मैं थक चूका था,
        तुझमे ही वो अनमोल गोहर पा लिया है आज,
                                                          कई सालों बाद...




शौर्य शंकर

बारिश...

मोती से गिरते बारिश की बूंदे,
गिरते मन को भाते हैं।

उछलती कूदती खुशहाल बच्चों सी,
सबको एक सी भिजती है।

इस बेरन धरती को एक बूँद ही तो,
अपनी किलकारियों से माँ बनाती है।

छूने में तो आम नीर है,
पर बरसों से प्यासे मन की प्यास बुझती है।

"टुकड़े..."

मेरे प्यार के टुकड़े, जो ज़मीन पर बिखरे थे।
आज उसे चिड़िया चुग ले गयी।

तेरी आवाज के टुकड़े जो मेरी जेब में पड़े थे।
आज धुल गए कपड़े धोते हुए।

वो मेरी आह के टुकड़े, जो लहूलुहान पड़े थे।
आज मेरी माँ के पैरों में चुभ गए।

मेरी आँखों से टपकते खून के जो टुकड़े पड़े थे।
कुछ शिकारी कुत्ते खड़े चाट रहे हैं उसे।

मेरे दिल के जामे के जो टुकड़े पड़े थे।
आज सड़े मांस की तरह बास करने लगे।

मेरी नब्ज़ में तैरती तेरी यादों के जो टुकड़े पड़े थे।
आज वो नब्ज़ भी सूखे के मारी पड़ी है वहीं।

तेरे झूठे इश्क के कील के जो टुकड़े पड़े थे।
आज मेरे गले को छेद चुके हैं।

वो तेरे प्यार में बजते घुँघरू के जो टुकड़े पड़े थे।
आज तूने उसे अपने जूती के नीचे कुचल दिया वहीं।

वो मेरी पलकों पर हमारी यादों के घोसलों के जो टुकड़े  पड़े थे।
आज भी तिनकों के मलबे तले उनकी लाशें दबी है वहीं।