Sunday 10 February 2013

"जहाँ अभी गोली चली थी"

अँधेरे की ऊनी चादर ओढ़े,
वो रात भयानक सी है.
जहाँ अभी गोली चली थी,
जहाँ थोड़ी देर पहले भगदड़ मची थी।
एक तरफ, गाड़ियों के टूटे कांच पड़े थे,
तो कहीं किसी की दुकान लुटी पड़ी थी।

एक तरफ कहीं आग की लपटें, मुंह खोले खड़ी थी,
तो दूसरी तरफ, उस गली के नुक्कड़ पर भिकारी की लाश पड़ी थी।
जिसे अभी-अभी पुलिस ले गई है, पोस्टमॉर्टेम के लिए।
और दहशत के पहरेदार गली में छोड़ गयी है।
डर भी अब छुपी दीवार की आड़ में,
कभी दरारों से झांकती, फिर छुप जाती है।

हवा भी आँख-मुंह-नाक-कान मींचे,
ठिठुरते बैठी है कोने में।
गली के नुक्कड़ पे बैठा,वो चौकीदार,
ऊँघता हुआ,जैसे अफ़ीम की रोटी खाई हो रात के खाने में।

तभी हवा ज़रा सी हिली,
आँखों से पलकों को दुकान की शटर जैसे
धीरे-धीरे ऊपर उठाया
और इधर-उधर फेरते,
जायज़ा लेते हुए,आँख थोड़ी और खोली।

नज़रों को थोड़ी दूर नुक्कड़ तक,
गश्त लगाने को भेजा, तो ख़याल आया,
इन चुप, अवाक् जगह में उसका क्या काम,
कहीं और चलती हूँ।

अपने हाथ खोले,सर ऊपर सीधा उठाये,
एक हाथ ज़मीन पर टिकाया,
दूसरा अपने ठंढे पड़े घुटने पर।
फिर ज़ोर लगा के उठी और एक बड़ी सी अंगड़ाई ली।

अचानक से पत्तों की सरसराहट
धुल के कणों की घबराहट,
हवा की अपनी हिचकिचाहट,
सब आपस में घुलने लगी।

वो धीरे-धीरे हलके कदम आगे की ओर रखने लगी।
और अगले ही पल सन्नाटों को महबूस* किये,
सांय-सांय इस गली से उस गली तक बहने लगी।
अचानक से गली का कुत्ता उठ बैठा,
चौंकीदार भी नशे से जाग गया।

कहीं दूर हल्की-हल्की रौशनी भी,
मकई के लावों* जैसी फूटने लगी,
अन्धकार को, रौशनी की छन्नी से छानने लगी,
कुछ लटके कपड़े दूर अब अकेले खड़े दिखने लगे।

चिड़ियों की बातें भी अब फिजां में उड़ने लगीं,
गिलहरियाँ भी अपने रोज-मर्रा के वर्जिस में जुट गयीं।
वहीँ कोने में मुंह छुपाये ख़रगोश,
बैठा ख़ल्वतों* में ना जाने, क्यों?
सूरज भी जम्हाई लेता समुन्दर की गोद से,
आँखों को मीचे, कनखियों से इधर-उधर देख,
ज़रा सी और खोलकर आँखों को, मलता उठा।

गली के एक कोने पे कुत्ते भोकने लगे ,
उन ग़लाज़त* से लिबास में लिपटी दो छोटी बच्चियां ,
अपने से भी बड़े बोरी लादे,
जिनमे मुसाइबों* के छोटे-छोटे गुड्डे लिए,
पन्नियाँ  बीनने निकली हैं।

कहीं-कहीं किसी घर के रसोईघर की बत्तियां जली,
अपने में बड़-बड़ाते बल्ब जो शायद उठना नहीं चाहते होंगे,
काफी हलकी रौशनी फेक रहे थे।
कुछ माँए आधी जगी, उठ गयी हैं,
अपने बच्चों के टिफ़िन बनाने को।

कहीं दूधिया अपनी साइकिल पे ,
बड़े-बड़े पीपे लादे,
नुक्कड़ से दुसरे घर के सामने रूका।
एक बूढी औरत जिसने झट से दरवाज़ा खोला ,
जैसे वो राह देख रही हो उसका।

अब उजाला ओस की बूंदों की तरह फ़ैल चुकी है,
लोग धीरे-धीरे घर को छोड़, सुबह से मिलने लगे।
बच्चे अपने स्कूल को और लोग पास के पार्क में टहलने लगे।
वहीँ उसी नुक्कड़ पे आज कोई और भिखारी बैठा दिखा,
कल के हादसे को लोग भूल, उन्ही ख़ून के धब्बों पे चलने लगे।

ख़ल्वतों*- एकांत
मकई के लावों* - मक्के के फुले
ग़लाज़त*- गंदे  
महबूस* -जकड़े/कैद
मुसाइबों*- दुःख


-शौर्य शंकर       

Saturday 9 February 2013

बच्चे जो मेरे पड़ोसी हैं..

कुछ बच्चे जो मेरे पड़ोसी हैं,
बात करते हैं, मेरी और मेरे बुलेट की।

कुछ महाशय की तो ये राय है हमारे बारे में,
कि बुलेट वाले भैया बहोत गुस्से वाले हैं।
अरे तुमने देखा है,
वो कभी किसी से कुछ नहीं बोलते!

तो उनमे से दूसरा कहता,
मुझे तो उनकी आँखों से डर लगता है भाई।

तो तीसरा कहता,
अबे इसी लिए तो बुलेट खरीदी है उन्होंने।

तो चौथा, जो काफी देर से मौन बैठा था,
बातों के महाभारत में कूदा और बोला,
तुझे पता है, बुलेट चलाने के लिए कितनी ताक़त चाहिए,
पूरी लोहे की बनी होती है, बुलेट।
ये बात शायद उसके पापा ने उसे बताई होगी।

तो अगले ने कहा,
तुम्हे पता है, मेरी माँ कहती है,
की वो लम्बू!
वो तो "गुंडा है गुंडा"।

पर मेरी बहन को वो बहुत अच्छे लगते हैं,
वो रोज मुझसे उनका नाम पूछती है।
किसी को उनका नाम पता है क्या?

तो काफी देर सन्नाटे के बाद,
एक ने हिचकिचाते हुए कहा,
भाई उनका नाम पूछने की हिम्मत,
हममे से तो, किसी में नहीं है।

इस वार्तालाप के बाद,
सब एक दुसरे को गौर से देखने लगे।

तो कुछ ही मिनटों बाद,
उनमे से सबसे छोटे महाशय ने फ़रमाया,
तुम्हे पता है,
मैंने उनसे बात की है,
और उनकी बुलेट पर घुमा भी हूँ,
मुझे तो उनका नाम भी पता है।

पहले तो सब भौचक्के खड़े रहे,
फिर,
सबने मिलके उसका जम के मजाक उड़ाया,
और वो बिचारा रोता हुआ वहां से चला गया।

और मेरे और मेरे बुलेट की बातें वहीं पड़ी रह गयीं...

- शौर्य शंकर 

"भूल आया हूँ..."

खुद से बातें करते, आज बहुत दूर निकल आया हूँ,
अपने घर का पता भी, मैं भूल आया हूँ।

किनारे की एक छोर पकड़, उसके साथ यहाँ तक चला आया हूँ,
नदी के हाथ में, मैं पते की पर्ची भी भूल आया हूँ।

उन दूर उड़ते परिंदों का इशारा भी, समझ नहीं पाया हूँ ,
क्योंकि आज ऐनक भी मैं, मेज पर ही भूल आया हूँ।

अभी-अभी सुबह को, शाम के सुपुर्द करके आया हूँ,
पता नहीं ज़ल्दी में सिगरेट की डिब्बी, कहाँ भूल आया हूँ।

पानी पे तैरता चाँद, देखो अपने साथ लाया हूँ,
अरे बेवजह ही देर रात, उसे इतनी दूर लाया हूँ।

कई गाँव, रास्ते, पुल, लोग पीछे छोड़ आया हूँ,
वहीँ से पानी पे तैरती,चाँदी की गुलाल मुट्ठी में भर लाया हूँ।

रेत पे चलते नंगे पैरों के निशां, पीछे छोड़ आया हूँ,
उन घिसी चप्पलों को मैं, ना जाने कहाँ फिर भूल आया हूँ।

कोई और चलेगा उन राहों पर कभी ना कभी,
जहाँ अपने नए तिजर्बाओं* को चमकता छोड़ आया हूँ।

ले जायेंगे मेरे पैरों के निशां उन्हें भी वहीँ,
जहाँ अपने सफ़र का एक नन्हा पौधा, मैं बो आया हूँ।

आके बैठूँगा छाँव में मेरे सफ़र के दरख़्त तले,
जहाँ पर मैं अपना सबकुछ ख़्वाबीदा* छोड़ आया हूँ।

बैठूँगा कभी शाख पर तो कभी पत्तों पर,
अपने लिए जीने का यही सबब, साथ लाया हूँ।

खुद से बातें करते, आज बहुत दूर निकल आया हूँ,
अपने घर का पता भी, मैं भूल आया हूँ।



*तिजर्बाओं- तजुर्बा
ख़्वाबीदा - सोये

- शौर्य शंकर

भूख भागती है ज़ख़्मी...

भूख भागती है ज़ख़्मी,
अपने चेहरे पे, ग़रीबी का मुहर लगाये।
गली-गली कूंचे-कूंचे, यहाँ से वहां,
हर तरफ, दर-दर भटकती हुई।
राशन कार्ड मुट्ठी में दबाये,
बचती, छुपती, उन इंसानों से,
जो खड़े सिर्फ हँसते हैं,
एक साथ ज़ोर-ज़ोर से,
जिनके आवाज़ की आंधी,
कान में बने घोसले को कबकी उजाड़ चुकी है।
जिसके उजड़ने पर बेघर हो चुका है,
वो सफ़ेद कबूतर का जोड़ा,
जो उड़ने की कोशिश में
उसी बरगद के पेड़ के शाख से जा टकराया है,
जो नुक्कड़ पर, खड़ा है,
हाथ में महंगाई का चाबुक लिए...
जहाँ सर झुकाए लोगों का हुजूम,
ना कुछ बोलने की हिम्मत रखता है,
ना ही कुछ करने की।
जहाँ लोहे से बनी हिम्मत की बेलों में,
शुष्क हवा के कीड़े,
जंग लगा गए हैं,
जो सर उठाने की सोचते भी नहीं,
कि अपना आस्तित्व बचा सकें,
जो ना जाने कबका गर्त में मिल चुका है।

- शौर्य शंकर 

वो चाँदनी...

जब कभी सर्द रातों में,
गली के कुत्तों की आवाज़े,
नींद में ख़लल डालती हैं लोगों के,

और चाँदनी बादलों से उतर के,
गली के आवारा कुत्तों से बचती, छुपती,
खिड़की के कोने से झांकती है,
और कांच को टापते हुए,
मेरे बिस्तर तक, चुपके से आती है।

और वही पास रखे टेबल पे से,
जब पानी का ग्लास गिराती है,
तो कटोरी सी आँखों को मीचे,
चाँदी से दांतों तले उंगली दबाये,
चुपके से परदे के पीछे दुपक जाती है।

मेरे चौंक के उठने पर और इधर-उधर देखने पर,
जब कुछ भी आस-पास नहीं पाता हूँ,
तो मेरी उंघती आँखे, कोई बुरा सपना समझकर,
बिस्तर के आग़ोश में, खींच ले जाती है।

तो चाँदनी अपने ठन्डे हाथ-पैर लिए,
चुपके से, धीमे पांव,
मेरे बिस्तर तक आती है,
और वही कोने पर बैठकर,
मुझे निहारा करती है...

फिर धीरे-धीरे अपने ठिठुरते पैर
मेरी रज़ाई में, चुपके से डालते हुए,
थोड़ी घबराई, थोड़ी सहमी सी,
चुपचाप सी बैठी,
बदन गरमाया करती है।
वो चाँदनी...

-   शौर्य शंकर

Wednesday 6 February 2013

" ना ही अब मैं.."

गली में बजती साईकल की घंटी ,
आज भी मेरा मन खीच ले जाती है।

मेरा मन वही खाखी वर्दी में उसी ,
खादी के झोले वाले आदमी की राह देखता है।

अब ना तेरे ख़त आते हैं,
ना ही अधेड़ उम्र वाला वो डाकिया।

अब न उसकी साईकल की खड़-खड़,
ना ही ट्रिन-ट्रिन मिलने आती है कभी।

ना ही अब मेरी नज़रें कभी खिड़की टाप कर ,
तेरी ख़त के आने की ख़बर ढूंढने जाती है।

ना ही अब मैं दरवाज़ा बंद किये, रात भर,
तेरे भेजे खतों से गुफ्तगू करता हूँ।

ना ही कुछ और काम बचा है अब,
तेरे ख़तों को सहेज के रखने के सिवा।

ना ही वो परिंदे मिलने आते हैं अब ,
ना ही धुप आती है झरोखे तक कभी।

ना ही अब हवा झांकती है कमरे में खामखां ,
ना ही बकरियां आती हैं चौखट तक कभी।

और ना ही छावं सुनती है, कान लगा के अब चुपके से ,
तेरे ख़त में लिखे प्यार के बोलते अल्फाज़ों को।

हाँ कभी-कभी चंदा मामा मिलने आते ,
काली ख़ेस ओढ़े, चुप-चाप भेष बदलकर।

तो कभी आसमान रो देता है बादलों की आढ़ लिए,
तेरे पुराने ख़तों को सिरहाने रख, उदास बैठे देखकर।

कल रात तेरे ख़त गिर पड़े सिरहाने से फिसल कर ,
उनमे से कुछ ही लफ़्ज़ों को सलामत बचा पाया हूँ।

किसी का हाथ टुटा, किसी का पैर तो किसी का सिर फूटा ,
और जो मर गए, उनमे से कुछ को चीटियाँ ले गई उठा के।

जो लावारिस पड़े रहे रात भर,उन्हें दफनाने जा रहा हूँ ,
मेरे तो 69 दिन पुराने हमसफ़र लगते थे, पर तेरा पता नहीं ....


-शौर्य शंकर

Saturday 2 February 2013

कुछ भी नहीं!!!

क्या, हम हिंदुस्तानी हैं?
नहीं!!!

क्या, भारतीय हैं?
नहीं!!!

तो फिर हम हिन्दू हैं, शायद!
नहीं!!!

तो फिर मुसलमान हैं,
नहीं!!!

तो क्या ईसाई हैं?
नहीं!!!

तो किसी के बाप हैं हम!!!
नहीं!!!

तो फिर बेटे होंगे किसी के,
नहीं!!!

भाई,
नहीं!!!

प्रेमी,
नहीं!!!

तो फिर दोस्त तो पक्का होंगे,
नहीं!!!

ये तो इन्सान हुआ करते है
हम इन्सान भी नहीं रहे शायद।

तभी तो हम कुछ भी नहीं हैं।
इनमें से,
कुछ भी नहीं!!!

"मेरा साथ दोगी ना..".

जब मैं ज़िन्दगी के ऊँचे-नीचे, पथरीले रास्तों पर चलते थक जाऊंगा।
बोलो, तो तुम मेरा साथ दोगी ना...

जब ज़िन्दगी में कुछ ना कर पाने की झुन्झुलाहट, सबसे दूर ले जाएगी।
बोलो, तो तुम मुझे गले से लगाये सबके करीब लाओगी ना...

जब कभी मैं चलते-चलते राह से भटकने लगूंगा,
बोलो, तो तुम मेरा कान पकड़कर मुझे सही राह पर लाओगी ना...

जब किसी की बातें मेरा दिल रुलाने लगेंगी,
बोलो, तो तुम अपने  कंधे पर मेरा सर रख चुप कराओगी ना...

जब मैं जीवन की गाड़ी को खींचते, थका बेहाल सा थम जाऊंगा,
बोलो, तो तुम मेरा हाथ बटाओगी ना...

जब किस्मत के दिए छाले, मेरे हाथों की लकीरों को नाकाबिल बना देंगी,
बोलो, तो तुम उन्हें चूम के फिर से काबिल बनाओगी ना...

जब कभी कामयाबी का घमंड, काई बनकर मुझपर जमने लगेगी,
बोलो, तो तुम अपनी आगोश में मुझे पिघलाकर सोना बनाओगी ना...

जब मैं अपने मेहनत के ईंटो-गारों से सपनों का मकान बनाऊंगा,
बोलो, तो तुम अपने स्नेह और प्यार से उसे घर बनाओगी ना...

जब चलते पैर लड़खड़ाने लगें और मुझमें एक कदम और भी चलने की साहस नहीं होगी,
बोलो, तो तुम मेरा हाथ थाम मुझे हौसला दिलाओगी ना...

जब बुढ़ापा घेर लेगी मुझे और आँखों की रोशनी धुंधलाने लगेगी,
बोलो, तो तुम अपनी आँखों से दुनियां दिखाओगी ना...

जब  आस-पास ना दोस्त होंगे, ना माँ होगी, ना भाई होगा, ना कोई अपना होगा,
बोलो, तो तुम हाथ थामें मेरा साथ आखरी स्वांस तक निभाओगी ना...

-शौर्य शंकर 

चार दीवारी में लीपटे अँधेरे...

चार  दीवारी में लीपटे अँधेरे में, मै बैठा रहा,
उजाले से क्यूँकर मैं, कोसों दूर जीता रहा .

रोद (धूप) भी रोशनदान से छन के आती रही,
बेवफ़ाई के बने ताले पर धूल को सुलाती रही.

वो हवा भी अँधेरे में मुझे डराती रही,
ज़हन में रखी तेरी तस्वीर को हिलाती रही.

रात-दिन खुद को तुझसे नफ़रत करने को कहता रहा,
पर तेरे नाम को धड़कनो से लगाए रातभर सुनता रहा .

तेरे दिये रुमाल को देखकर मेरा दिल उसे चूमता रहा,
तेरे खुशबू के बिखरे फूल, कई दिनों तक मैं चुनता रहा.

लोगों की हमदर्दी से हर रोज़ मैं खुद को छुपाता रहा,
सब के नफरत से पल-पल मेरा शौर्य बुझता रहा.

पिघले सीसे सा अकेलापन मेरे नसों में बहता रहा,
आँखों से ख़ून के लावे को मैं यूँ ही निगलता रहा.

दर्द भी अब तो दस्तबस्ता* मुझसे गुज़ारिश करती रही,
ये बेइन्तेहा दर्द अब और देर तक झिलती नहीं.

अब घावों में कोई दर्द, कोई टीस रही नहीं,
ये हालत मेरी, मौत से भी क्यूँ देखी गई नहीं...

अरे मौत ने भी मुह फेर लीया है, अब तो,
अब और किसकी रुसवाई को मैं हूँ, मालूम नहीं...

क्यूँ तू मुझ बेइन्तेहा प्यार की मूरत लगी,
और शौर्य तुझे प्यार के काबिल लगा ही नहीं...

*दस्तबस्ता - हथजोड़