Friday 27 September 2013

कुछ आधी बातें हैं रह गयी .....



कुछ आधी बातें  हैं रह गयी 
कुछ आधी  रातें हैं रह गयी 

कुछ आधी ख़्वाहिशें हैं रह गयी 
कुछ आधी  गुंज़ाइशें हैं रह गयी 

कुछ आधी मुलाक़ाते  हैं रह गयी 
कुछ आधी रंज़िशें  हैं रह गयी 

कुछ आधी खुश्बूएँ  हैं रह गयी 
कुछ आधी करवटें  हैं रह गयी 

कुछ आधी रज़ाई हैं रह गयी 
कुछ आधी सलवटें  हैं रह गयी

कुछ आधी रुबाइयाँ हैं रह गयी 
कुछ आधी परछाईयाँ  हैं रह गयी 

कुछ  आधा मैं हूँ  रह गया 
कुछ आधी तू हैं रह गयी 



~ शौर्य शंकर 

Dekhna Apni yaadon ke har pal ko cheetiyan ek-ek kar le jaane lagi

Dekhna Apni yaadon ke har pal ko cheetiyan ek-ek kar le jaane lagi 
Kuch iss tareh apne ishq ki mishri dusron ke zubaan lagne lagi 
Etrr me doobi si teri yaad kuch dino se kathak seekne Jane lagi
Or meri palken uski hatheli thame ghar se roz use laane-lejaane lagi
Teri mus roz raat me meri khwaabon ki patang dekho udaane lagi
Kuch isi tareh abkey chaand pe amaawas me diwaali manane lagi
Tere intezaar ke har lamhe ko shabdon me baandh chiththi mujhtak laane lagi
Meri ruh unn chiththion ko liye paaglon ki tareh zor-zor se nachne lagi
Teri didaar ko baahon me liye meri aankhen kabhi hastne-kabhi rone lagi
Bura saaya soch koi log aate jaate paththaron ke phool sar pe barsane lage
Har qatre me basi teri aashiqi dekh na zakhm ka saath chhod ke jaane lagi
Kuch isi tarah meri aankhon me basi teri tasveer dheere-dheere qabrr ko jaane lagi 

Pehle kabhi raasta apne ghar ka main bhoola tha nahi

Pehle kabhi raasta apne ghar ka main bhoola tha nahi 
Kuch dino se tere chehre ke siwa kuch nazar Jo aata nahi 
koi aks tha raaste me Jo haath thaam girne pe utha gya 
Andhere me Na Zakhm ka pta chala na raaston ka
Koi tha Jo saath saath dabey kadmon se aagey chalta raha 
Accha! tera hi ishq tha Jo raat malham laga sisak ke rota raha ..

Main aaj bhi unhi bachpan ke lamhon r yaadon se khelta hun

Main aaj bhi unhi bachpan ke lamhon r yaadon se khelta hun
Tu kab sayani hoke haath chooda chali gai pata hi nahi chala 
Aaj bhi Teri aankhen peecha karti hain mera din raat 
Par Iss sheher ke dhooen me tera chehra kahin kho gya hai 
Peechle 7 dino se tera chehra hi khoj raha hun yaha se wahan
FIR ko teri tasveer maangi hai police waalon ne aaj 
Teri aankhon se hi pooch raha hun tere chehre ke baare me
Wo bhi bechaare reh-reh ro dete hain meri diwaangi dekh
Main andar hi andar man me uthe toofaan ko sula diya karta hun
Mej pe Raat jalake neend se bhor tak baatein karta hun
Subeh fir nikal jaata hun tera chehra dhoondne in chehron ke beech
Abhi Qutub minar pe chadd, jaate baadlon se poocha hain
Unnhone ek khoye chehre ke baare me bataya hai abhi
Usi chehre ka intezaar kar raha hun main yahan kab se
Wo wahan koi aata dikh raha hai, kahin wahi to nahi
Wo haath badha bula rahi hai , haan main abhi aata hun
Par main ussey door kyun ho raha hun kahan jaa raha hun
Ye log kyun ghere Khade hain mujhe kya Jo gya aisa
Teri aankhen mujhe yun god me liye aise ro kyun rahi hai
Apne dupattey se mera chehra kyun saaf kar rahi hain
Meri maa ki rone ki awaaz kyun aa rahi hai mujhe
Arey log utha ke kahan le jaa rahe hain kandhe pe
Ye chatai me lapet mitti me kyun daba rahe hai mujhe
Arrey mujhpe ye log mitti kyun daal rahe hain
Suno.... mujhe ek baar meri maa se to mil lene do
Ek baar gale laga ke ye to pooch lene do wo kyun ro rahi thi
Koi Sun raha hai kya mujhe
Saalon koi to jawab do....suno! 

Thursday 22 August 2013

" ये ज़िंदगी कतरा-कतरा कर रोज़ गुज़र जाती है यूँ "



ये ज़िंदगी कतरा-कतरा कर रोज़ गुज़र जाती है यूँ 
जैसे रेत कूपों में लहर दबे पाँव भर ले जाती है 

 ये अकेलापन आ मुझसे रोज़ चिपट जाता है यूँ 
जैसे काई कुँए की दिवार पर रोज़ जम जाती है 

ये उलझन मेरे मन के बगल रोज़ बैठ जाती है यूँ  

जैसे दोस्त कोई बचपन हर शाम मिलने आ जाता है

ये सब देख रोज़ जी मेरा घबराता है यूँ 

जैसे घर के कोनो में दुप्का कोई चूहा हो 

ये सब चीज़ों से ख़ुद को बचाता हूँ रोज़ यूँ 
जैसे माँ छतरी में बच्चे को झुलसन से बचाती हो  


-शौर्य शङ्कर 

Monday 19 August 2013

कोई सुन रहा है क्या मुझे .......


मैं आज भी उन्ही बचपन के लम्हों और यादों से खेलता हूँ 
तू कब  हाथ छूड़ा चली गई पता ही नहीं चला 

आज भी तेरी आँखें पीछा करती है दिन-रात 
इस शहर के धुएं में कहीं खो गया है तेरा चेहरा 

पीछले  7 दिनों से तेरा चेहरा ही खोज रहा हूँ यहाँ-वहां 
ऍफ़. आई. आर  को तस्वीर मांगी है पुलिस वालों ने आज 

तेरी आँखों से ही पूछ रहा हूँ तेरे चेहरे का पता 
वो भी बेचारी रह-रह रो देती है मेरी दीवानगी देख 

मैं मन में उठे तूफ़ान को सुला दिया करता हूँ 
मेज़ पे रात जलाके नींद से भोर तक बातें करता हूँ 

सुबह फिर निकल जाता हूँ तेरा चेहरा ढूंढने इन चेहरों के बीच 
अभी क़ुतुब मीनार पे चढ़, जाते बादलों से पुछा है 

उन्होंने एक खोया चेहरे के बारे में बताया है अभी 
उसी चेहरे का इंतज़ार कर रहा हूँ मैं यहाँ कब से 

वो वहां कोई आता दिख रहा है, कहीं वही तो नहीं 
वो हाथ बढ़ा बुला रही है, हाँ मैं अभी आता हूँ 

पर मैं उससे दूर क्यों हो रहा हूँ कहाँ जा रहा हूँ 
ये लोग क्यों घेरे खड़े हैं मुझे क्या हो गया ऐसा 

तेरी आँखें मुझे यूँ गोद में लिए ऐसे रो क्यों रही है 
अपने दुपट्टे से मेरा चेहरा क्यों साफ़ कर रही है 

मेरी माँ की रोने की आवाज़ क्यों आ रही है मुझे 
अरे लोग उठा के कहाँ ले जा रहे हैं मुझे कंधे पे

ये चटाई में लपेट मिट्टी में क्यों दफ़ना रहे हैं मुझे 
अरे मुझपे ये लोग मिट्टी क्यों डाल रहे हैं 

सुनो , मुझे एक बार मेरी माँ से तो मिल लेने दो 
एक बार गले लगा के ये तो पूछ लेने दो वो क्यों रो रही है 

कोई सुन रहा है क्या मुझे 
कोई तो जवाब दो.... सुनो.. ए भाई!  



~ शौर्य शंकर 

Tuesday 16 July 2013

"वन्दे-मातरम"



कुछ ऐसी ही दुनियाँ रह गयी हैं,
जहां सच्चाई, अच्छाई की कोई कीमत नहीं।

जहां मेहनती होना अपराध है,
घोर अपराध।

जहां लोग इसी ताक में खड़े हैं,
कि लीप दिया जाए सबको अपने ही जैसे,
निकम्मे पन की कालिख़ से।

अब कुछ ऐसे ही लोग देश चलाते हैं,
नयी पीढ़ी के जीवन का मार्ग दर्शन और फ़ैसला करते है।
कुछ ऐसे ही लोगों के हाथों मैं हमारे देश और हमारा सुनेहरा भविष्य है।
जिनकी खुद की हथेली पे जातिवाद और भ्रष्टाचार की ग्रीस लगी हैं।

ताकि कोई अपने ढंग से जी ना सके।
अपनी एक नयी जगह और पहचान न बना सके।
एक अलग रास्ता न चुन सके।
अपना सफ़र पूरा न कर सके।

इसी विडम्बना के भयानक दाग को अपने चेहरे पर लिए,
हमारा भारत वर्ष रोज़ सुबह उठता है…. 

"मैं अकेला ही रह जाता हूँ"



दुनिया की इस भीड़ में ख़ुद को,
अक्सर में खोया पाता हूँ।

लोगों की इस सरगर्मी में,
हर एक चहरा जब नया पाता हूँ।

कुछ को पास आते,
कुछ से खुद दूर होता जाता हूँ।

हस्ते तो सब हैं यहाँ पर,
खुदसे क्यों उन्हें ख़फा पाता हूँ?

"ऐसा क्यूँ है"  पूछता हु खुदसे,
फिर खुद को ही समझाता हूँ।

मुखौटे हैं सबके चहरे पे यहाँ ,
जब रोज़ उन्हें खुदकी रूह दफ़्नातॆ पाता हूँ।

नाकुछ देखता हूँ, ना सुनता हूँ;
अँधेरे में बेख़ौफ़ सड़क पार कर जाता हूँ।

अपने अकेलेपन को खुद में छुपाये,
सबसे बचते जल्दी से जीना चढ़ जाता हूँ।

अकेलापन गीरेबां से बाहर ना झाँक ले,
इसी लिए उसे चुप चाप पुल के नीचे छुपा आता हूँ।

और मैं फिर अकेला ही रह जाता हूँ ....

"तेरी तरह"

तुम्हारी कविताओ से खुशबु आने लगी है।
कुछ नयी बेलें  निकल आई है ,
कुछ नए फूल खिले है।

उन्ही फूलों में से, जो मुरझा गए थे।

कुछ को घर के पीछे की क्यारी में रोप दिया था।
मेरे पीछे, कुछ ही दिनों में उसकी बेलें,
देखो न छत्त तक चढ़ आई है।

अब उन्ही बेलों में वैसे ही ख़ुशबू वाले फूल खिले है,
जो पूरे घर को महकाया करती है, तेरी तरह।


कभी आँगन में कुर्सी पर बैठे अपने बाल सुखाती।
कभी सिलबट्टे पर चटनी पीसते मेरी लिखी नज़्मे गुनगुनाती, तेरी तरह।


कभी आइना चमकाती है मेरे चहरे पर,
कभी वही नींबू  वाली काली चाय बनती है, तेरी तरह।

कभी सोते हुए चद्दर खीच ले जाती है,
कभी गीले बाल चहरे पर डाल जगाती है, तेरी तरह।

कभी साड़ी के कौने में चाभियाँ बाँध घुमती है,
कभी चूड़ियां खन्नका के बात करती, नाराज़ होने पर, तेरी तरह।


अब तुझे याद करता हूँ उन्ही के दरमियाँ बैठे,
और उनसे घंटों बातें करता हूँ
तेरी गैर-मौज़ूदगी में  ....



~ शौर्य शङ्कर


Friday 12 July 2013

"अब मैं डरता नहीं"



अब मैं गरीबी से भी डरता नहीं।
क्यूंकि खुद को दिल की सल्तनत का सुलतान मान लिया है मैंने।।

अब मैं ख़्वाब टूटने से भी डरता नहीं।
क्यूंकि ख़ुद पे विश्वास करना, सीख लिया है मैंने।।

अब मैं मौत से भी डरता नहीं।
क्यूंकि हर पल को जीना, सीख लिया है मैंने।।

अब मैं डूबने से भी डरता नहीं।
क्यूंकि समुन्दर की गहराई से, दोस्ती कर ली है मैंने।।

अब मैं मंज़िल की तलाश करता नहीं।
क्यूंकि ख़्वाबों को हमसफ़र, बना लिया है मैंने।।


-शौर्य शंकर

  

"कोई बता दे मेरे साथ ऐसा क्यूँ है "

तीन दिन से पड़ा हूँ मैं कोने में यूँ ही।
जैसे रखे सामान में से, मैं भी एक हूँ।।

 लोगों के दिन में, मैं सहर देखता हूँ।
उनके शाम में, अपनी दोपहर को।। 

लोगों के शब् में अपनी शाम खोजता हूँ। 
तो सहर में अपनी आँखों की रैना को।।   

क्या दुनिया से मैं एक पहर पीछे हूँ ?
 या वो मुझसे आगे भाग रही है।।

पहले माँ की गालियाँ भी लुफ्त-अन्दोज़ कर जाती थी। 
अब माँ की हलक में भी रेगिस्तान हुआ करता है।।

पहले तो गालियाँ भी मुतासिर न हो पाती थी। 
अब चुप्पी भी खंजर से हालाक किया करती है।।

अब कहाँ जाऊ, किस्से बात करू और क्या?
चलते हुए भी रुके होने का एहसास, ज़हन में पाता हूँ।।

मेरी दुनिया थक के, थम चुकी है कब की।
पर दुनिया को हरवक्त, रफ़्तार को तैयार पाता हूँ।। 

क्या है ये मुझे मालुम नहीं, न ही जानना है मुझे? 
पहले लोग, मुझमे ही सारा जहाँ पा लिया करते थे।। 

कल तक, जो महफिलों का चराग हुआ करता था। 
आज वीरानों की सिली बू सा बेहाल रहता है।। 

ये गलती किसकी है कुछ मालुम नहीं।
पर हर गलती की गवाही मैं भी दिया करता नहीं।। 

चलता हूँ मैं अब उन् दोस्तों के आगोश में। 
जो बिना किसी मतलब भी, पनाह देते है मुझे।।


-शौर्य शंकर 
   

"किसी से मुझे भी मिला दे कभी "


किसी से मुझे भी मिला दे कभी। 
किसी का आशिक़ ही बना दे कभी।।

किसी पे मैं भी जान छिड़कूँ कभी। 
उसके दिल की धड़कन बन जाऊं कभी।। 

किसी की आँखों में डूब जाऊं कभी। 
उसके काम ये ज़िन्दगी आजाए कभी।। 

किसी की मुस्कुराहट पे साँस थम जाए कभी।
उसके होटों पे मेरा नाम ही आजाए कभी।।

किसी के दिल में धड़कन बन धड़कूं कभी।
उसको चूम के नब्ज़ में उतर जाऊं कभी।।

किसी की सपनो में मैं घोड़े पे आऊं कभी।
उसको भरी महफ़िल में अपना बनाऊँ कभी।।

किसी को अपनी बाहों में ले गाने गाऊँ कभी।
उसकी सुनहरी किस्मत मैं, बन जाऊं कभी।।

किसी की हर पल को धड़कना सीखाऊँ कभी।
उसकी दुनिया को फूल बन महकाऊँ कभी।।

किसी की रूह में समां जाऊं कभी।
उसकी बाहों में ही दफ़्न हो जाऊं कभी।।


-शौर्य शंकर 

"कुछ ऐसी भी गलियाँ हैं"

कुछ ऐसी भी गलियाँ हैं, जहाँ कुछ थके लोग रहते हैं।
उन्ही गलियों से होके मैं अकेले गुज़रा हूँ, अपने सपनो को ढूँढता।।

इस गली से उस गली, इस पार से उस पार तक हो आता हूँ ।
आज मेरी नज़र पड़ी उन्ही लोगों पे, जो पड़े हैं सड़क किनारे।।

जो इंसान थे कभी, आज गज़ालत से लिपटे मॉस के लोथड़े है बस।
जिनकी आँखों की पुतलियाँ ज़रा भी हिलती नहीं, कुछ भी देखती नहीं।।

कान जो सुनते नहीं, मुह से एक भी गूंगे शब्द घूमने निकलते नहीं।
जिन्हें देख अब खुद से नफ़रत होती नहीं, नाकामयाबी मेरा पीछा करती नहीं।।

जिनके ज़रूरतों ने ही शायद अब उनके सपने का मुखौटा ओढ़ लिया है।
उनही को जीना सिखाऊँगा, कुछ यूँ मैं इच्छाओं की तितलियान उड़ाऊंगा।।

उन ही गलियों तक आया हूँ आज, इन् पुरानी खिर्चों को भी अब हसना सिखाऊँगा।
देखो कुछ ही दिनों में वही थके लोग हसने, बात करने, चलने-फिरने लगे हैं।। 

अब वही कचरे से पन्नियों की जगह, सपनो के जामुन चुनने लगे हैं।
अब वो ही रोज़ एक नया सपना, अपने हाथों से कपड़े की तरह बुनने लगे हैं।।

उन्ही हाथों से बुने सपनो को ज़िन्दगी की वाशिंग मशीन में धुलने लगे हैं।
और कुछ उन्ही सपनो में माड़ डाल एकदम कड़क कर, स्त्री करने लगे हैं।।

कुछ ने उन्ही पर इत्र डाल दिया, अब वो ही सरेआम बाज़ार में बिकने लगा है।
अब उन्होंने चख लिया है स्वाद इन मीठे सपनो का और दुनिया से आगे चल दिए हैं।।

अब मैं भी चल देता हूँ किसी और गली में सोए थके लोगों को सपनो से रूबरू करवाने।
आज मैं हूँ और मेरे चारो तरफ उड़ते, हवा में घुलते, मेरा पीछा करते कुछ नए सपने।। 


-शौर्य शंकर 

" ज़हन की खिड़कि, दरवाज़ों"




जब कभी ज़हन की खिड़कि, दरवाज़ों से यादों की हवाएँ टकराएँगी।

मुझे, हमारे साथ बिताये वो ख़ूबसूरत 5 दिन फिर वहीँ, खीच ले जाएंगी।।


अगर कभी मिल ना पाऊँ घर पर या कभी तुम्हारे भेजे ख़तों का जवाब न दूं।

तो सीधे चले आना वहीँ, जहाँ तेरे हर सवाल के जवाब भटकते मिलजाएंगे।।


पहले हज़ारों बहाने थे मिलने, गूफ्तगू के हमारे दरमियान, मेरे दोस्त।

अब हर हसीन लम्हा तुझे वहीँ, उसी ख्वाबगाह में मुकफ़्फ़ल किये मिल जाएंगे।।


वो सब, जो हर लम्हों को हर वक़्त बुनते थे, सहेज के साथ रखने को।

उनके उन्ही लम्हों के मैले, उधड़े रूए, तुझे चारों तरफ उड़ते मिल जाएँगे।।


सब बड़ी जल्दी खो जाते हैं, नई दुनिया के चकाचोंद में यहाँ, ना जाने क्यूँ ?

कुछ जल्दी में लगता है ये शहर, अतीत की लिवास उतार, नया चढ़ा लेता है।।


अपना तो दिल ही कुछ ऐसा है, क्यूँ कर है, पूछूँगा बेतकल्लुफ़्फ़ हो ख़ुदा से कभी?

 रात में क्यूँ कर काफ़िर लम्हों को पनाह देता हूँ, जब साथ नहीं दे पाएँगे कभी।।


वो वैसा ही छोड़ जाएगा, जैसे थे पुराने ज़ख्म, उनपे अपने यादों के नमक डाल  के।

डर के मारे कराहना भी बंद हो जाएगा, जब-जब यादों की हवाएँ दरवाज़े खटखटाएंगे कभी।।


*मुकफ़्फ़ल- तालों में बन किये 

-शौर्य शंकर

Friday 5 July 2013

"ये ज़िन्दगी भी क्या खूब खेल..."



ये ज़िन्दगी भी क्या खूब खेल खिलाती है।

एक पल में हजारों खुशियाँ देती,
दुसरे पल फिर रुलाती है।

एक पल में खुद से मिलाती,
दुसरे पल सबसे दूर कर जाती है।

एक पल में दोस्तों की नयी दुनियां,
दूसरे पल कोहराम मचा जाती है।

एक पल में ख्वाब सिरहाने रखती,
दुसरे पल फिर जगाने आ जाती है।

ज़िन्दगी भी क्या खूब खेल...


---शौर्य शंकर 

"कुछ दिनों से तुम्हारे ख्वाब..."



कुछ दिनों से तुम्हारे ख्वाब सिरहाने रखता हूँ।
जिनसे रात-भर गुफ्तगुं किया करता हूँ।
कभी हाथों में हाथ डाले बादलों पे चलता हूँ।
कभी झील किनारे जुगनुओ की बातें सुनता हूँ।
कभी चाँद की तेज़ खर्राटे की नक़ल करता हूँ।
कभी घंटों आसमान तले चांदनी चुनता हूँ।
कभी तेरी पायल के धुन को गीतों में बुनता हूँ।
कभी तेरी आँखों की परछाईयों को घंटों तक चूमता हूँ।

---शौर्य शंकर

"कई दिनों से तलब लगी है..."


कई दिनों से तलब लगी है, 

                   कुछ ग्राम सुकून है क्या?
हर बाज़ार, दूकानों, ठेले, 

                   पटरी वाले से पूँछ चुका हूँ।
किसी के पास नहीं है, 

                   मैं क्या करूँ कहाँ जाऊं।
अरे कोई तो बता दो, 

                   कोई तो मदद करो मेरी।
कब से भटक रहा हूँ, 

                   यारों हाथ जोड़ता हूँ।
कैसे लोग हैं इस शहर के, 

                   कुछ भी सुनते ही नहीं।
अपनी ही धुन में, 

                   चले जा रहे है बुत बने।
सुना है Online सब मिल जाता है, 

                   आज-कल यहाँ।
तो क्या "Myntra या OLX" पे, 

                    सुकून भी मिल जायेगा?

---शौर्य शंकर

"कागज़ पे कुछ यादें..."



कागज़ पे कुछ यादें, कई दिनों से बिखरी थी।
उसपे आज मैंने कुछ लकीरें, खिंच दी है।
जिसमे तेरा ही चेहरा नज़र आने लगा है।
जिसे दिन से रात, रात से दिन, निहारा करता हूँ।
क्या करूँ, तेरी आँखों को उदास देख रो देता हूँ।
तेरे लबों का मस, मुझे सोने नहीं देता रात भर।
तेरी तस्वीर लिए, अब यूँ ही बेसुध बैठा रहता हूँ।
लोग मुझ पर हँसते, और पागल कह निकल जाते हैं।
अरे पागल तो वो हैं, जो  बेखबर जीते हैं, इश्क से।
मैं तो अब मोहब्बत में ख़ुदा से बात किया करता हूँ।

---शौर्य शंकर

"मेरे पलकों पे एक रात कोई सपना छोड़ गया था..."



मेरे पलकों पे एक रात कोई सपना छोड़ गया था।

क्या किसी ने उसे देखा है, अँधेरे में कहीं उड़ते हुए।


क्या किसी ने देखा है उसे, नदी किनारे कहीं बैठे हुए।


या किसी ने देखा हो, उसके पैरों के निशान धडकते हुए।


कभी यहीं मैं रात भर भागा करता था, पीछे उसके।


वो सुनहरे बाल लिए पानी में, परछाईयाँ पकड़ा करती थी।


मैं उसके पीछे बादलों तक, चढ़ जाया करता था।


कभी उसके जुडवा नैनों को, टकटकी लगाये देखा करता था।


जब वो अपने सुनहरे बालों को, धूप में सुखाया करती थी।


मैं टपकते हर बूँद को माथे लगा, सदका किया करता था।


उसकी खुशबू मुझे आगोश में भर, घंटों नाचा करती थी।

और मैं उसके चेहरे का नूर, एक साँस में पी जाया करता था।


उसे नदी के रास्ते, चाँद के घर छोड़ आऊंगा आज।


यहाँ का मौसम, अब कुछ ठीक नहीं उन जैसों के लिए।



--- शौर्य शंकर

"दिल के किसी कोने में"


दिल के किसी कोने में कोई बच्चा बैठा है चुप-चाप,
जो न कुछ बोलता है और न ही कुछ सुनता है कभी।
बस अतीत के कोयले से दीवार पे कुछ चेहरे बनाता है।
बड़े चेहरे, छोटे चेहरे, गोल तो कभी लम्बे चेहरे।
अतीत की कालिख में उसके हाथ की लकीरे मिटने लगी हैं।
कभी-कभी उन्ही लकीरों में से कुछ सिसक कर रो देते है।
थोड़ी सी भी आहट होने पे खून के आँसू जेब में रख लेते हैं।
उनका दर्द कुछ भी बोलता नहीं, बस बाहर झांकता है।

कुछ दिनों से अब वो छुप-छुप के कुछ देखने लगा है।
झरोखे के पास बैठे अब वो धीरे से गुनगुनाने लगा है।
जब धड़कन से पायल की रुनझुन मिलने आती है।
उसके पीछे दिल के चौखट तक अब वो जाने लगा है।
वो बच्चा अकेले ही अब नदी किनारे टहलने लगा है।
मिट्टी के गमलों में अब गेंदे के फूल उगाने लगा है।
कल से ही अब वो कुछ हल्का सा मुस्कुराने भी लगा है।

--- शौर्य शंकर

मैं किताब के पन्नो को पंख बना अब उड़ने लगा...

मैं किताब के पन्नो को पंख बना अब उड़ने लगा।
मैं उन्ही बचपन के पुराने खिलौनों से फिर खेलने लगा।
मैं रंग बिरंग के पतंगों को गलियों में अब लूटने लगा।
मैं तितलियों के पीछे उनके रंगों को अब ढूँढने लगा।
मैं बांस की हर एक फूँक भी अब कान लगा सुनने लगा।
मैं रंग-बिरंगे कन्चों से गली में बच्चों के साथ खेलने लगा।
मैं लट्टू के हर चक्कर पे गोल-गोल अब घूमने लगा।
मैं नानी-दादी के भूतों के किस्सो से भी अब डरने लगा।

--- शौर्य शंकर

तेरी आँखों के जूठे कुछ आँसू...

तेरी आँखों के जूठे कुछ आँसू, 
                                           मैं आज पी गया हूँ।
तेरी हसीन लबों के पंखुड़ियों को, 
                                           मैं आज चख गया हूँ।
तेरी माथे की बिंदी को चाँद तारों से, 
                                           मैं आज सजा गया हूँ।
तेरी चूड़ियों के रंग में इन्द्रधनुष, 
                                           मैं आज घोल गया हूँ।
तेरी नूर के गुलाल की महक में, 
                                           मैं आज बेशुध हो गया हूँ।
तेरी ख्वाबों की डाली पे एक झूला, 
                                           मैं आज छोड़ गया हूँ।
तेरी नब्ज़ में दौड़ते हर कतरे में, 
                                           मैं आज रच-बस गया हूँ।
तेरी इश्क की परछाई में बेफिक्र होके थोड़ी देर, 
                                           मैं आज सोने चला हूँ।

--- शौर्य शंकर

"पाने को तुझे "




कभी तेरी यादें

खूटे से उतार लाता हु पाने को तुझे।

कभी मंदिर में

दिए कई जलाता हूँ पाने को तुझे।

कभी आँगन में

तुलसी लगता हूँ आने को तुझे।

कभी अरदास कई

कर जाता हूँ माँ के दरबार में पाने को तुझे।

कभी २१ सोमवार के

व्रत तक कर जाता हूँ पाने को तुझे।

कभी झगड़ के

दुनिया से लहूलुहान हो जाता हूँ, पाने को तुझे।

कभी तकता हूँ

ज़िन्दगी भर राह तेरा, एक दिन पाने को तुझे।

कभी जनम मैं

दूसरा भी ले आऊँगा दुल्हन बनाने को तुझे।  



-शौर्य शंकर

"अब तेरे"



अब तेरे तस्वीरों के सामने बैठे

                           मैं उनसे बाते करता हूँ।

अब तेरे साए से मिलने को मिन्नतें

                           मैं कई बार करता हूँ।

अब तेरे झूटे वादों पे भी ऐतबार

                          मैं हर बार करता हूँ।

अब तेरे छोड़े यादों के सिलवटों को भी प्यार

                          मैं दिन रात करता हूँ।

अब तेरे भेजे पुराने ख़तों से नादानियों का इकरार

                         मैं करता हूँ।

अब तेरे दिल के किवाड़ पे दस्तक से दुश्मनी

                         मैं हज़ार कर लेता हूँ।

अब तेरे लिए लिखी कविताओं के पन्नो से

                        मैं कागज़ों के प्लेन उड़ाया करता हूँ।

अब तेरे यादों के चौखट पे इंतज़ार के दिए

                        मैं रोज़ जलाया करता हूँ।

अब तेरे दूर जाने के डर से खुदा से

                       मैं रोज मिलने जाया करता हूँ।

अब तेरे साथ बिताए लम्हों को बुन के

                     मैं अतीत का एक गोला बनाया करता हूँ।

अब तेरे इंतज़ार में हर पल आग के दरिया को पार

                     मैं किया करता हूँ।






-शौर्य शंकर

"कभी देखा है तूने "




कभी देखा है तूने

सूरज को रोज सुबह दांत मांजते हुए।

कभी देखा है तूने

चाँद को छुपके रात में नहाते हुए।

कभी देखा है तूने

चांदनी को धुप में बाल सुखाते हुए।

कभी देखा है तूने

बादलों को अपनी सफ़ेद दाढ़ी रंगवाते हुए।

कभी देखा है तूने

बूढ़े आसमान को बिना दांत के मुस्कुराते हुए।

कभी देखा है तूने

मछलियों को रास्ट्रीय गान गाते हुए।

कभी देखा है तूने

जूग्नूओं को शाम में लालटेन जलाते हुए।

कभी देखा है तूने

रात को बरामदे पे जलती डिबिया बुझाते हुए।

कभी देखा है तूने

पीपल के पेड़ पे बैठी भूतनी को पंछी से डर जाते हुए।

कभी देखा है तूने

बगुले को नई कोलापुरी पहने ससुराल जाते हुए।

कभी देखा है तूने

दरिया को साबून रगड़-रगड़ के नहाते हुए।

कभी देखा है तूने

किनारे को धोती उठाए नाव से उस पार जाते हुए।

कभी देखा है तूने

बिल्ली को चाँद पे चढ़, आँख मीचे  छीके से दूध चुराते हुए।

कभी देखा है तूने

काले कौवे को हवा पे गाय चराते हुए।

कभी देखा है तूने

मेंढक को महफिलों में कव्वाली गाते हुए।

कभी देखा है तूने .........







-शौर्य शंकर

"आज भी कुछ बादल, उसी बिजली की तारों में उलझे है"



आज भी कुछ बादल, उसी बिजली की तारों में उलझे है।

जहाँ कई साल पहले, एक कबूतर रोज़ बैठा करता था।।


जहाँ दिन, चाँद की लालटेन लिए रात में घर जाया करता था।

और रौशनी चुपके से, नंगे पाँव झील किनारे आया करती थी।।


वहीं मचान के पास खड़े खम्बे के नीचे, एक मरियल कुत्ता सोया करता है।

जहाँ एक अँधा बल्ब खम्बे से लटके रात में, किसी की याद में रोया करता है।। 
 

इस सावन उन्ही आंसू के उड़ते बादल, उलझ गए जाने कैसे इन तारो में।

जो कुछ दिनों से, गाँव के गरीब बच्चों को पढ़ना-लिखना सिखाया करता है।।


जो बिजली से बूढ़े बल्ब की आखरी ख्वाहिश, पूरा करने की गुज़ारिश करने गया था।

जिसे गाँव में बिजली, उस कबूतर के मरने के बाद अकेला छोड़, चली आई थी।।


अब उन्ही खम्बों की तारों में बिजली, शायद फिर से रहने आएगी।

अरसे बाद ही सही इस गाँव में, फिरसे खुशियों की दिवाली गुनगुनाएगी।।


जहाँ अंधे, बूढ़े बल्ब ने, बेटी के प्रेमी को देसी तमंचे से, एक गोली दागी थी।

वही आज उसी बाप की, बेटी से मिलने की ख्वाहिश की बाती, बुझने वाली है।।


अभी उसी कबूतर के भाई के हाथों, लोगों ने ये ख़बर, बिजली को भिजवाई है।

महीने बाद, न ही बिजली की आने की उम्मीद रही और ना ही तारों से लटका वो बूढ़ा।।


-शौर्य शंकर

"आज कल मैं, ये काम करने लगा हूँ"

आज कल मैं, ये काम करने लगा हूँ।
सूरज के साथ, सुबह को शाम करने लगा हूँ।।

सूरज की लौ जलाके देखो, मैं दिन करने लगा हूँ।
कभी शाम को फूक से बुझा के, मैं रात करने लगा हूँ।। 
रात के साथ मशाल लिए, पुरे गाँव में घुमने लगा हूँ।
यही दिनचरिया मुट्ठी में थामे, मैं आगे बढ़ने लगा हूँ।।

आज कल मैं, ये काम करने लगा हूँ ......

पिछले हफ्ते से ही मैं, यूँ बिना आराम रहने लगा हूँ।
सोई ख्वाहिशों को मैं, उम्मीदों के पंख, जो देने लगा हूँ।। 
उन्ही ख्वाहिशों को लिए मैं, फिरसे जीने लगा हूँ।
हर मुश्किल को मैं घूँट-घूँट कर, पिने जो  लगा हूँ।।

आज कल मैं, ये काम करने लगा हूँ .....

अब मैं सोता नहीं कभी, इतना काम करने लगा हूँ।
पुरानी आदतों को मैं यूँ, रोज़ नाकाम करने लगा हूँ।।
मैं कभी ख़ाली नहीं बैठता, इतना बेताब रहने लगा हूँ।
"ऐसा ही रहूं " यही प्रार्थना मैं, भगवान् से करने लगा हूँ।।

आज कल मैं, ये काम करने लगा हूँ।
सूरज के साथ सुबह को, शाम करने लगा हूँ।।


-शौर्य शंकर 

Sunday 23 June 2013

तो क्या अब तिरंगे का रंग भी बदल जाएगा ?

ना केसरिया पगड़िया रही,
ना वीरो का चौड़ा ललाट।

ना ही अब त्यागी साधू रहे,
जो भगवा पहन उसका शौर्ये बढ़ाया करते थे।
अब बस रह गया है,
पाखंड यहाँ।

अब श्वेत रंग तो नेताओ की चमड़ी पे चढ़े भ्रष्टाचार और,
झूट की काली काई को छुपाने में इस्तमाल होने लगा।
अब ना ही इस देश में प्रेम पनपता है कही,
नाही सच्चाई लोगों से मिलने आती हैं यहाँ ।

किसानो के परिवार की लाशो पे खड़े
ये मॉल, फैक्ट्रीयो और इमारते,
और इमारतों की काली परछाई का राक्षस हँसता है,
सुबह-शाम ज़ोर-ज़ोर से।

हमारे देश का हरा भरा खेत ,
उन्ही हँसी की आवाजों से त्रस्त बंजर होने लगा है।
जिसे कुछ दिनों बाद बचाना भी मुमकिन ना हो।

अब तो ना ही रहा मन में, चक्र का मोल,
उन छब्बीस स्तंभों को भी कई बार हीलाया डुलाया गया हैं।

क्या रह गया है
अब इस देश में ?


सब कुछ तो बदल गया है


तो क्या अब तिरंगे का रंग भी बदल जाएगा ?





-शौर्य शंकर 

दूर कही देखो

दूर कही देखो कोई शाम ढली
दूर कहीं देखो कोई बात चली

घूंघट ओढ़ हवा चुपचाप चली
धीरे-धीरे रात देखो सीढियां चढ़ी 

पंछियों का झूंड रास्ते में खो गया 
तारों को आसमान में कोई बो गया

आधा चाँद झील में देखो गिर गया
मछलियाँ चांदनी कूपों में भर ले जाती रही

लहरें बिना कुछ कहे साहिल से चली गई
छुई-मुई कोने में खड़ी गुनगुनाती रही

पीपल की छाव गीलहरियों को डराती रही
तुलसी की खुशबू  दिये की लॉ हिलाती रही 

दूर कही देखो कोई शाम ढली
दूर कहीं देखो कोई बात चली



-शौर्य शंकर 

अरे देखो

अरे देखो
बारिश की बूंदों के भी दांत झड़ गए

अरे देखो
धूप के बाल भी सफ़ेद हो गए 

अरे देखो
हवा भी अब लाठी ले चलने लगी

अरे देखो
रात भी अब भोर तक सोती नहीं

अरे देखो
दिन को आँखों से कुछ दीखता नहीं

अरे देखो
पेड़ भी दम्मे को सिरहाने लिए बैठा रहा 

अरे देखो
खेतों ने कोई फसल इस बरस जनी नहीं

अरे देखो
नदी कई सालों से खाट से उठी नहीं

अरे देखो
चिड़ियों की कूक भी खांस बन गूंजने लगी





-शौर्य शंकर 

Friday 26 April 2013

'भाई चल ना...... '


भाई चल ना .......
चाँद पे बैठ कर
आसमान में मछलियाँ पकड़ेगे।

भाई चल ना .......
अपने खटारे साइकिल पे
ख़्वाबों का जहाँ देखेंगे।

भाई चल ना .......
सपनो के साबुन से
ठहाकों के बुलबुले उड़ाएँगे।

भाई चल ना ........
धूप में गुम
मिट्टी की भीनी ख़ुशबू ढूँढेंगे।


भाई चल ना......
माँ के पैरों मे
आशीर्वादों का जहां जीतेंगे।





-शौर्य शंकर



Monday 8 April 2013

कभी हम



कभी तुमसे मिलने की ख़ुशी हुई
तो कभी, बिछड़ने का हुआ गम।

कभी कुछ कहने का मन हुआ
तो चुप काट दिए, वो हसीन पल।

कभी तुझे देखने का दिल हुआ
तो मुह फेरे बैठा था, तेरा तन।

कभी अकेले में तेरी तस्वीर बनाई
तो कभी, उसमे भरते रहे रंग।

कभी तेरी हसी के सिक्के बिने हमने
तो कभी, तेरी छुवन को चुमते रहे हम।


कभी तेरी आँखों में प्यार दिखा
तो खुदको, नाकाबिल समझने लगे हम।


कभी तुमने खुलके प्यार का इकरार किया
तो तेरी भलाई को, दूर रहने लगे हम।


~ शौर्य शंकर


  

"फुर्सत के पल"

शायद मेरी उसी
फटी निक्कर के जेब से
कहीं गिर गए, वो पल 

जब हम कंन्चों की आवाजों 
और लट्टू में मदहोश रहते थे 
कुछ और सूझता ही नहीं था 

या, शायद कुछ पता ही नहीं था 
या, उन् रंग बिरंगे कंचों
 जैसी दुनिया हम देखना ही नहीं चाहते थे 

दिन-रात फिरते रहना 
अपनी बचपन की बैलगाड़ी पे 
तरह-तरह के सुनहरे 
फुर्सत के पलों की पोटली लिए।

कुछ मेरी ही तरह थे,मेरे दोस्त 
और उन दोस्तों में एक कुत्ता 
जिसका नाम तो याद नहीं 
पर उसका प्यार, आज भी साथ लिए जीता हूँ ।
 कभी उन
 अंग्रेज़ी फिल्मों की तरह
 नदी किनारे रेत पे धूप सेकना 
और घंटों तक नहाते रहना।

कभी कांटें बनाते,
कभी मछलियाँ पकड़ते 
कभी आम चुराते, 
कभी लीची के पेड़ों पे घंटों बैठे रहते। 

और जब जामुन तोड़ते थक जाते 
तो भैसों के पीठ पे बैठ 
अपने-अपने घर को चल देते
पता नहीं कहाँ हैं वो 
..फु ...र्स ....त .....    .के  ....... प ....ल ....





 ~ शौर्य शंकर 

"बस यही करता रहा रात भर "





कभी तेरा नाम लिखा

तो कभी मिटा दिया

बस यही करता रहा रात भर।




कभी तेरी तस्वीर देखी

तो कभी छुपा दी

बस यही करता रहा रात भर।







कभी तुमसे मिलने के अरमान जगाए

तो कभी सुला दिए

बस यही करता रहा रात भर।




कभी तुझे ख्यालों में पाया

तो कभी गुमा दिया

बस यही करता रहा रात भर।



कभी तू रूठ जाती

तो मैं मना लेता

बस यही करता रहा रात भर।




कभी ये सब सोच बत्ती जलाई

तो कभी बुझा दी

बस यही करता रहा रात भर।










~ शौर्य शंकर

Friday 15 March 2013

सुनहरे पंख


कुछ और धुंधले होते जा रहे है


वो रंग, पुरानी यादों के मेरे


कुछ ही रंगों का अस्तित्व बचा है बाकी


सब सफ़ेद या स्याह से लगते हैं अब तो।






मिटटी के बने वो घर, सफों में


गोबर से लिपे आँगन और बरामदे


राख़ से माँजे हुए साफ़-सुथरे बर्तन


जिस पे धुप अपने सुनहरे पंख, छोड़ गई है।






कल ढूंढते वापिस आयेगी, इसी रसोईघर में


जहाँ गेहूँ में लगे घुन के डर से


मिटटी के कोठरी पे चढ़ बैठी थी।






सीक पे टंगी मटकियों से; दही चुराई थी


और हड़बड़ाहट में, कोठरी से उतरते हुए


तखत पे रखा, अचार का बोयाम गिराया था।






जल्दी में कभी सिलबट्टे से बचती


कभी किवाड़ के पास रखी ओखली से


चूल्हे के आढ़ में बेसुध पड़ा वो लोटा


तेल से बने पैरों के, निशान झाँकता।






आंगन में चटाई पे सूखती, वो बड़ियाँ


तेल से सने पंजों को देख, चीख पड़ी


तभी हवा जो बरामदे में पड़ी खाट पे


दुनिया से बेखबर सो रही थी, घबरा के उठी


तो एक साया सिरहाने से भागता दिखाई पड़ा।




शौर्य शंकर









"मेरा मन कुछ दिनों से अकेले शहर घूम आता है "

मेरा मन कुछ दिनों से,
 अकेले शहर घूम आता है
ये बावला सा है कुछ ,
 मेरी बात सुनता ही नहीं।

किवाड़ पे दस्तक होते ही,
 रात का आँचल पकड़े, निकल पड़ता है
पूरी रात इधर-उधर,
 खाली डब्बे सा बेवजह ही घूमता रहता है ।

कभी किसी ठिठुरते बुढे को
अपने स्नेह की चादर ओढा आता है 
तो कभी उन् कोने में लाचार पड़े
 अंधेरे को, सड़क पार करवाता है।

 और जब डूबते बचपन को
नशे के भयानक भवर से बचाने जाता है,
 तो गिद्ध से घूरते,
 उन् खुंखार निगाहों पे लगे मुखौटे से, डर जाता है।

ये उतावला मन बेचैन है; कब से,
 किसी हिरन के बच्चे की तरह 
जो हर एक छोटी सी आहट पे
 आँख मीचे कोने में दुपक जाता है।

 कुछ देर बाद ही सही
पर दिल के आँगन में खुलती खिड़की से 
बच्चों के पायल की किलकारियों को सुन
 हल्का सा ही सही, पर मुस्कुराता है। 

उसके चेहरे पे खिची काँटों वाली
तारों की सरहद से चोरी -छुपे
 कोई असला-बारूद लिए, घुसता है,
 और एक पल में, कही छु हो जाता है। 

माथे पे पसीने की बूंदे
अब  कुछ ऐसे दिखते है 
जैसे खिड़की के कांच पे सरकती
 बारिश की बूँदें हों, धीरे-धीरे।

 और एक कोने से मुसलसल झांकती हैं,
 मन के अन्दर, चुपचाप
  जैसे कुछ कहना चाहती हो ,
 कोई दुःख, बांटना चाहती हो मुझसे। 


तभी किसी ने,
देसी तमंचे से एक गोली दागी,
वो ज़ख़्मी मोर तड़पता पिछली गली में
 बिन रहा था; अपने बिखरे साँसों के टुकड़ों को।  

जो बार-बार उठने की
नाकाम कोशिश कर रहा था 
आखिरकार कामयाब तो हुआ,
 पर, मरने के बाद। 

पुलिस आई है अभी
पूछताछ को गली में
तमंचे को लिए,
 जिसपे खून से सने उँगलियों के, निशाँ मिले हैं।

आज कल खौफ़
 खुले आम घूमता है शहर में 
लोगों को डराता हैं आते-जाते,
 बेख़ौफ़ रात-दिन। 

उन्ही सकरी गलियों में
अब खौफ़ के कुत्ते भी गुर्राते है 
खूनी पंजो से खरोच के समझाते हैं,
अपना मुह बंद रखने को।

 अब तो ओस भी
 तेज़ाब बन गिरती है पत्तों पे 
कोयल ने गाना, गाना
कब का छोड़ दिया है यहाँ। 

गौरैया भी शहर से
पलायन कर गयीं हैं,
अब बच्चों के रगों में भी
खौफ़ बहने लगा है यहाँ।

खौफ़ की फसल होती है
खौफ़ ही खेतों में उगते है यहाँ 
अब खौफ़ ही खाते और पीते हैं,
लोग यहाँ। 

अब ना ही
मेरा मन बेख़ौफ़ रहा 
ना ही घर से निकलता है कभी कहीं,
 पहले की तरह ..    



-शौर्य शंकर 
    



    

Sunday 10 February 2013

"जहाँ अभी गोली चली थी"

अँधेरे की ऊनी चादर ओढ़े,
वो रात भयानक सी है.
जहाँ अभी गोली चली थी,
जहाँ थोड़ी देर पहले भगदड़ मची थी।
एक तरफ, गाड़ियों के टूटे कांच पड़े थे,
तो कहीं किसी की दुकान लुटी पड़ी थी।

एक तरफ कहीं आग की लपटें, मुंह खोले खड़ी थी,
तो दूसरी तरफ, उस गली के नुक्कड़ पर भिकारी की लाश पड़ी थी।
जिसे अभी-अभी पुलिस ले गई है, पोस्टमॉर्टेम के लिए।
और दहशत के पहरेदार गली में छोड़ गयी है।
डर भी अब छुपी दीवार की आड़ में,
कभी दरारों से झांकती, फिर छुप जाती है।

हवा भी आँख-मुंह-नाक-कान मींचे,
ठिठुरते बैठी है कोने में।
गली के नुक्कड़ पे बैठा,वो चौकीदार,
ऊँघता हुआ,जैसे अफ़ीम की रोटी खाई हो रात के खाने में।

तभी हवा ज़रा सी हिली,
आँखों से पलकों को दुकान की शटर जैसे
धीरे-धीरे ऊपर उठाया
और इधर-उधर फेरते,
जायज़ा लेते हुए,आँख थोड़ी और खोली।

नज़रों को थोड़ी दूर नुक्कड़ तक,
गश्त लगाने को भेजा, तो ख़याल आया,
इन चुप, अवाक् जगह में उसका क्या काम,
कहीं और चलती हूँ।

अपने हाथ खोले,सर ऊपर सीधा उठाये,
एक हाथ ज़मीन पर टिकाया,
दूसरा अपने ठंढे पड़े घुटने पर।
फिर ज़ोर लगा के उठी और एक बड़ी सी अंगड़ाई ली।

अचानक से पत्तों की सरसराहट
धुल के कणों की घबराहट,
हवा की अपनी हिचकिचाहट,
सब आपस में घुलने लगी।

वो धीरे-धीरे हलके कदम आगे की ओर रखने लगी।
और अगले ही पल सन्नाटों को महबूस* किये,
सांय-सांय इस गली से उस गली तक बहने लगी।
अचानक से गली का कुत्ता उठ बैठा,
चौंकीदार भी नशे से जाग गया।

कहीं दूर हल्की-हल्की रौशनी भी,
मकई के लावों* जैसी फूटने लगी,
अन्धकार को, रौशनी की छन्नी से छानने लगी,
कुछ लटके कपड़े दूर अब अकेले खड़े दिखने लगे।

चिड़ियों की बातें भी अब फिजां में उड़ने लगीं,
गिलहरियाँ भी अपने रोज-मर्रा के वर्जिस में जुट गयीं।
वहीँ कोने में मुंह छुपाये ख़रगोश,
बैठा ख़ल्वतों* में ना जाने, क्यों?
सूरज भी जम्हाई लेता समुन्दर की गोद से,
आँखों को मीचे, कनखियों से इधर-उधर देख,
ज़रा सी और खोलकर आँखों को, मलता उठा।

गली के एक कोने पे कुत्ते भोकने लगे ,
उन ग़लाज़त* से लिबास में लिपटी दो छोटी बच्चियां ,
अपने से भी बड़े बोरी लादे,
जिनमे मुसाइबों* के छोटे-छोटे गुड्डे लिए,
पन्नियाँ  बीनने निकली हैं।

कहीं-कहीं किसी घर के रसोईघर की बत्तियां जली,
अपने में बड़-बड़ाते बल्ब जो शायद उठना नहीं चाहते होंगे,
काफी हलकी रौशनी फेक रहे थे।
कुछ माँए आधी जगी, उठ गयी हैं,
अपने बच्चों के टिफ़िन बनाने को।

कहीं दूधिया अपनी साइकिल पे ,
बड़े-बड़े पीपे लादे,
नुक्कड़ से दुसरे घर के सामने रूका।
एक बूढी औरत जिसने झट से दरवाज़ा खोला ,
जैसे वो राह देख रही हो उसका।

अब उजाला ओस की बूंदों की तरह फ़ैल चुकी है,
लोग धीरे-धीरे घर को छोड़, सुबह से मिलने लगे।
बच्चे अपने स्कूल को और लोग पास के पार्क में टहलने लगे।
वहीँ उसी नुक्कड़ पे आज कोई और भिखारी बैठा दिखा,
कल के हादसे को लोग भूल, उन्ही ख़ून के धब्बों पे चलने लगे।

ख़ल्वतों*- एकांत
मकई के लावों* - मक्के के फुले
ग़लाज़त*- गंदे  
महबूस* -जकड़े/कैद
मुसाइबों*- दुःख


-शौर्य शंकर       

Saturday 9 February 2013

बच्चे जो मेरे पड़ोसी हैं..

कुछ बच्चे जो मेरे पड़ोसी हैं,
बात करते हैं, मेरी और मेरे बुलेट की।

कुछ महाशय की तो ये राय है हमारे बारे में,
कि बुलेट वाले भैया बहोत गुस्से वाले हैं।
अरे तुमने देखा है,
वो कभी किसी से कुछ नहीं बोलते!

तो उनमे से दूसरा कहता,
मुझे तो उनकी आँखों से डर लगता है भाई।

तो तीसरा कहता,
अबे इसी लिए तो बुलेट खरीदी है उन्होंने।

तो चौथा, जो काफी देर से मौन बैठा था,
बातों के महाभारत में कूदा और बोला,
तुझे पता है, बुलेट चलाने के लिए कितनी ताक़त चाहिए,
पूरी लोहे की बनी होती है, बुलेट।
ये बात शायद उसके पापा ने उसे बताई होगी।

तो अगले ने कहा,
तुम्हे पता है, मेरी माँ कहती है,
की वो लम्बू!
वो तो "गुंडा है गुंडा"।

पर मेरी बहन को वो बहुत अच्छे लगते हैं,
वो रोज मुझसे उनका नाम पूछती है।
किसी को उनका नाम पता है क्या?

तो काफी देर सन्नाटे के बाद,
एक ने हिचकिचाते हुए कहा,
भाई उनका नाम पूछने की हिम्मत,
हममे से तो, किसी में नहीं है।

इस वार्तालाप के बाद,
सब एक दुसरे को गौर से देखने लगे।

तो कुछ ही मिनटों बाद,
उनमे से सबसे छोटे महाशय ने फ़रमाया,
तुम्हे पता है,
मैंने उनसे बात की है,
और उनकी बुलेट पर घुमा भी हूँ,
मुझे तो उनका नाम भी पता है।

पहले तो सब भौचक्के खड़े रहे,
फिर,
सबने मिलके उसका जम के मजाक उड़ाया,
और वो बिचारा रोता हुआ वहां से चला गया।

और मेरे और मेरे बुलेट की बातें वहीं पड़ी रह गयीं...

- शौर्य शंकर 

"भूल आया हूँ..."

खुद से बातें करते, आज बहुत दूर निकल आया हूँ,
अपने घर का पता भी, मैं भूल आया हूँ।

किनारे की एक छोर पकड़, उसके साथ यहाँ तक चला आया हूँ,
नदी के हाथ में, मैं पते की पर्ची भी भूल आया हूँ।

उन दूर उड़ते परिंदों का इशारा भी, समझ नहीं पाया हूँ ,
क्योंकि आज ऐनक भी मैं, मेज पर ही भूल आया हूँ।

अभी-अभी सुबह को, शाम के सुपुर्द करके आया हूँ,
पता नहीं ज़ल्दी में सिगरेट की डिब्बी, कहाँ भूल आया हूँ।

पानी पे तैरता चाँद, देखो अपने साथ लाया हूँ,
अरे बेवजह ही देर रात, उसे इतनी दूर लाया हूँ।

कई गाँव, रास्ते, पुल, लोग पीछे छोड़ आया हूँ,
वहीँ से पानी पे तैरती,चाँदी की गुलाल मुट्ठी में भर लाया हूँ।

रेत पे चलते नंगे पैरों के निशां, पीछे छोड़ आया हूँ,
उन घिसी चप्पलों को मैं, ना जाने कहाँ फिर भूल आया हूँ।

कोई और चलेगा उन राहों पर कभी ना कभी,
जहाँ अपने नए तिजर्बाओं* को चमकता छोड़ आया हूँ।

ले जायेंगे मेरे पैरों के निशां उन्हें भी वहीँ,
जहाँ अपने सफ़र का एक नन्हा पौधा, मैं बो आया हूँ।

आके बैठूँगा छाँव में मेरे सफ़र के दरख़्त तले,
जहाँ पर मैं अपना सबकुछ ख़्वाबीदा* छोड़ आया हूँ।

बैठूँगा कभी शाख पर तो कभी पत्तों पर,
अपने लिए जीने का यही सबब, साथ लाया हूँ।

खुद से बातें करते, आज बहुत दूर निकल आया हूँ,
अपने घर का पता भी, मैं भूल आया हूँ।



*तिजर्बाओं- तजुर्बा
ख़्वाबीदा - सोये

- शौर्य शंकर

भूख भागती है ज़ख़्मी...

भूख भागती है ज़ख़्मी,
अपने चेहरे पे, ग़रीबी का मुहर लगाये।
गली-गली कूंचे-कूंचे, यहाँ से वहां,
हर तरफ, दर-दर भटकती हुई।
राशन कार्ड मुट्ठी में दबाये,
बचती, छुपती, उन इंसानों से,
जो खड़े सिर्फ हँसते हैं,
एक साथ ज़ोर-ज़ोर से,
जिनके आवाज़ की आंधी,
कान में बने घोसले को कबकी उजाड़ चुकी है।
जिसके उजड़ने पर बेघर हो चुका है,
वो सफ़ेद कबूतर का जोड़ा,
जो उड़ने की कोशिश में
उसी बरगद के पेड़ के शाख से जा टकराया है,
जो नुक्कड़ पर, खड़ा है,
हाथ में महंगाई का चाबुक लिए...
जहाँ सर झुकाए लोगों का हुजूम,
ना कुछ बोलने की हिम्मत रखता है,
ना ही कुछ करने की।
जहाँ लोहे से बनी हिम्मत की बेलों में,
शुष्क हवा के कीड़े,
जंग लगा गए हैं,
जो सर उठाने की सोचते भी नहीं,
कि अपना आस्तित्व बचा सकें,
जो ना जाने कबका गर्त में मिल चुका है।

- शौर्य शंकर 

वो चाँदनी...

जब कभी सर्द रातों में,
गली के कुत्तों की आवाज़े,
नींद में ख़लल डालती हैं लोगों के,

और चाँदनी बादलों से उतर के,
गली के आवारा कुत्तों से बचती, छुपती,
खिड़की के कोने से झांकती है,
और कांच को टापते हुए,
मेरे बिस्तर तक, चुपके से आती है।

और वही पास रखे टेबल पे से,
जब पानी का ग्लास गिराती है,
तो कटोरी सी आँखों को मीचे,
चाँदी से दांतों तले उंगली दबाये,
चुपके से परदे के पीछे दुपक जाती है।

मेरे चौंक के उठने पर और इधर-उधर देखने पर,
जब कुछ भी आस-पास नहीं पाता हूँ,
तो मेरी उंघती आँखे, कोई बुरा सपना समझकर,
बिस्तर के आग़ोश में, खींच ले जाती है।

तो चाँदनी अपने ठन्डे हाथ-पैर लिए,
चुपके से, धीमे पांव,
मेरे बिस्तर तक आती है,
और वही कोने पर बैठकर,
मुझे निहारा करती है...

फिर धीरे-धीरे अपने ठिठुरते पैर
मेरी रज़ाई में, चुपके से डालते हुए,
थोड़ी घबराई, थोड़ी सहमी सी,
चुपचाप सी बैठी,
बदन गरमाया करती है।
वो चाँदनी...

-   शौर्य शंकर

Wednesday 6 February 2013

" ना ही अब मैं.."

गली में बजती साईकल की घंटी ,
आज भी मेरा मन खीच ले जाती है।

मेरा मन वही खाखी वर्दी में उसी ,
खादी के झोले वाले आदमी की राह देखता है।

अब ना तेरे ख़त आते हैं,
ना ही अधेड़ उम्र वाला वो डाकिया।

अब न उसकी साईकल की खड़-खड़,
ना ही ट्रिन-ट्रिन मिलने आती है कभी।

ना ही अब मेरी नज़रें कभी खिड़की टाप कर ,
तेरी ख़त के आने की ख़बर ढूंढने जाती है।

ना ही अब मैं दरवाज़ा बंद किये, रात भर,
तेरे भेजे खतों से गुफ्तगू करता हूँ।

ना ही कुछ और काम बचा है अब,
तेरे ख़तों को सहेज के रखने के सिवा।

ना ही वो परिंदे मिलने आते हैं अब ,
ना ही धुप आती है झरोखे तक कभी।

ना ही अब हवा झांकती है कमरे में खामखां ,
ना ही बकरियां आती हैं चौखट तक कभी।

और ना ही छावं सुनती है, कान लगा के अब चुपके से ,
तेरे ख़त में लिखे प्यार के बोलते अल्फाज़ों को।

हाँ कभी-कभी चंदा मामा मिलने आते ,
काली ख़ेस ओढ़े, चुप-चाप भेष बदलकर।

तो कभी आसमान रो देता है बादलों की आढ़ लिए,
तेरे पुराने ख़तों को सिरहाने रख, उदास बैठे देखकर।

कल रात तेरे ख़त गिर पड़े सिरहाने से फिसल कर ,
उनमे से कुछ ही लफ़्ज़ों को सलामत बचा पाया हूँ।

किसी का हाथ टुटा, किसी का पैर तो किसी का सिर फूटा ,
और जो मर गए, उनमे से कुछ को चीटियाँ ले गई उठा के।

जो लावारिस पड़े रहे रात भर,उन्हें दफनाने जा रहा हूँ ,
मेरे तो 69 दिन पुराने हमसफ़र लगते थे, पर तेरा पता नहीं ....


-शौर्य शंकर

Saturday 2 February 2013

कुछ भी नहीं!!!

क्या, हम हिंदुस्तानी हैं?
नहीं!!!

क्या, भारतीय हैं?
नहीं!!!

तो फिर हम हिन्दू हैं, शायद!
नहीं!!!

तो फिर मुसलमान हैं,
नहीं!!!

तो क्या ईसाई हैं?
नहीं!!!

तो किसी के बाप हैं हम!!!
नहीं!!!

तो फिर बेटे होंगे किसी के,
नहीं!!!

भाई,
नहीं!!!

प्रेमी,
नहीं!!!

तो फिर दोस्त तो पक्का होंगे,
नहीं!!!

ये तो इन्सान हुआ करते है
हम इन्सान भी नहीं रहे शायद।

तभी तो हम कुछ भी नहीं हैं।
इनमें से,
कुछ भी नहीं!!!

"मेरा साथ दोगी ना..".

जब मैं ज़िन्दगी के ऊँचे-नीचे, पथरीले रास्तों पर चलते थक जाऊंगा।
बोलो, तो तुम मेरा साथ दोगी ना...

जब ज़िन्दगी में कुछ ना कर पाने की झुन्झुलाहट, सबसे दूर ले जाएगी।
बोलो, तो तुम मुझे गले से लगाये सबके करीब लाओगी ना...

जब कभी मैं चलते-चलते राह से भटकने लगूंगा,
बोलो, तो तुम मेरा कान पकड़कर मुझे सही राह पर लाओगी ना...

जब किसी की बातें मेरा दिल रुलाने लगेंगी,
बोलो, तो तुम अपने  कंधे पर मेरा सर रख चुप कराओगी ना...

जब मैं जीवन की गाड़ी को खींचते, थका बेहाल सा थम जाऊंगा,
बोलो, तो तुम मेरा हाथ बटाओगी ना...

जब किस्मत के दिए छाले, मेरे हाथों की लकीरों को नाकाबिल बना देंगी,
बोलो, तो तुम उन्हें चूम के फिर से काबिल बनाओगी ना...

जब कभी कामयाबी का घमंड, काई बनकर मुझपर जमने लगेगी,
बोलो, तो तुम अपनी आगोश में मुझे पिघलाकर सोना बनाओगी ना...

जब मैं अपने मेहनत के ईंटो-गारों से सपनों का मकान बनाऊंगा,
बोलो, तो तुम अपने स्नेह और प्यार से उसे घर बनाओगी ना...

जब चलते पैर लड़खड़ाने लगें और मुझमें एक कदम और भी चलने की साहस नहीं होगी,
बोलो, तो तुम मेरा हाथ थाम मुझे हौसला दिलाओगी ना...

जब बुढ़ापा घेर लेगी मुझे और आँखों की रोशनी धुंधलाने लगेगी,
बोलो, तो तुम अपनी आँखों से दुनियां दिखाओगी ना...

जब  आस-पास ना दोस्त होंगे, ना माँ होगी, ना भाई होगा, ना कोई अपना होगा,
बोलो, तो तुम हाथ थामें मेरा साथ आखरी स्वांस तक निभाओगी ना...

-शौर्य शंकर 

चार दीवारी में लीपटे अँधेरे...

चार  दीवारी में लीपटे अँधेरे में, मै बैठा रहा,
उजाले से क्यूँकर मैं, कोसों दूर जीता रहा .

रोद (धूप) भी रोशनदान से छन के आती रही,
बेवफ़ाई के बने ताले पर धूल को सुलाती रही.

वो हवा भी अँधेरे में मुझे डराती रही,
ज़हन में रखी तेरी तस्वीर को हिलाती रही.

रात-दिन खुद को तुझसे नफ़रत करने को कहता रहा,
पर तेरे नाम को धड़कनो से लगाए रातभर सुनता रहा .

तेरे दिये रुमाल को देखकर मेरा दिल उसे चूमता रहा,
तेरे खुशबू के बिखरे फूल, कई दिनों तक मैं चुनता रहा.

लोगों की हमदर्दी से हर रोज़ मैं खुद को छुपाता रहा,
सब के नफरत से पल-पल मेरा शौर्य बुझता रहा.

पिघले सीसे सा अकेलापन मेरे नसों में बहता रहा,
आँखों से ख़ून के लावे को मैं यूँ ही निगलता रहा.

दर्द भी अब तो दस्तबस्ता* मुझसे गुज़ारिश करती रही,
ये बेइन्तेहा दर्द अब और देर तक झिलती नहीं.

अब घावों में कोई दर्द, कोई टीस रही नहीं,
ये हालत मेरी, मौत से भी क्यूँ देखी गई नहीं...

अरे मौत ने भी मुह फेर लीया है, अब तो,
अब और किसकी रुसवाई को मैं हूँ, मालूम नहीं...

क्यूँ तू मुझ बेइन्तेहा प्यार की मूरत लगी,
और शौर्य तुझे प्यार के काबिल लगा ही नहीं...

*दस्तबस्ता - हथजोड़

Thursday 17 January 2013

" सर्द रातों में "


वो दिन याद है मुझे , आज भी ,
जब सर्द रातों में, सबसे नज़रें बचाके ,
रजाई में दुपके मन को अपने साथ लिए ,
हम उस चांदनी रात में झील किनारे मिलते थे।

उस लीची के पेड़ के नीचे खड़ी दुपट्टे में ,
ऐसी लगती ,जैसे कोई हंसनी चाँदी लपेटे खड़ी हो ,
जिसके मन से, बरखा बरसती मुझे देखने पर ,
तेरा  शर्माना, झिझकना चार चाँद लगा देता ,खूबसूरती में।

अपनी आँखों में मेरी तस्वीर लिए,
विचलित ,बेचैन सी राह तकती मेरा ,
मेरे आने पे , आँखों में चमकती वो बूंद ,
फिर मेरी छाती से तेरा लिपट जाना।

उस लालटेन की पिली रौशनी ओढ़े तुम,
मेरी ऊँगली पकड़ के, उन पगडंडियों पर चल देती ,
अपने सपनो के घर , जो वहां  दूर, उस नदी किनारे हैं ,
जहाँ सिर्फ तू , मैं और हमारे सपने उड़ते हैं, जुगनू बनके ।  




शौर्य शंकर                                                                                                                                                                                                                                                            


Tuesday 15 January 2013

" तू आती क्यूँ नहीं "



मौसम आते है ,
कुछ दिन साथ -साथ रहते ,
फिर चले जाते हैं ,
वो तो ,हर साल मिलने आती है।
 तू आती क्यूँ नहीं ......

मुझसे पहले मेरे बस-स्टैंड पे आना ,
घंटों ,मेरी राह तकते रहना ,
एक ही बस में आना ,फिर जाना,
तेरी याद , आज भी मेरी पीछे आती है ,
तू  आती क्यूँ नहीं .....

मुझसे आँखे चुराना ,
फिर कनखियों से देखना ,
छुपके बात सुनना ,फिर दोस्तों से मेरी बातें करना ,
वो बातें तो मुझसे मिलने आती है,
तू आती क्यूँ नहीं .......

मुझे खेलते देखना ,
हर एक रन , विकेट लेने पर तालियाँ बजाना ,
कैच पकड़ते हुए मुझे चोट लगने पर,
तेरी आह दौड़ के मेरे पास आती है ,
तू आती क्यूँ नहीं ......

मेरा हमेशा ध्यान रखना,
ख़ुशी में हसना , परेशानी में उदास हो जाना ,
अपने रुमाल पे मेरा नाम लिखना ,छुप-छुप के उसे देखना ,
उस रुमाल की ख़ुशबू तो मिलने आती है ,
तू आती क्यूँ नहीं ......

मेरे जाने पे , मेरी जगह बैठे रहना ,
टेबल पे मेरा नाम लिखना ,एक-एक अखर को प्यार से सहलाना ,
चूमना उसे , फिर अपने मन में बसा लेना,
वो छुवन तो कभी-कभी मेरे पास  आती है,
तू आती क्यूँ  नहीं ......



शौर्य शंकर 



Sunday 13 January 2013

"wisdom is all I have"





You can achieve ,
whatever you want in life ,
you are running after everything
to win the world and lose your soul.
Your are alive , so be alive 
and being alive , get up,
walk , run for triumph.

Overcome your darkest days n nightmares,
move across every obstacles,
thats just to make you stronger,
just to push our limits ahead and what you are?  
So Listen more ,be eloquent ,
Watch around, school yourself ,
Because Wisdom is all we need .

Wisdom is better than silver or gold,
Sweeter than sugar ,
Brighter than sun ,
colder than Ice,
softer than feather.

This is all I have ,
all I get , all I earn,
all I taste ,
till now ...... "WISDOM"


Shaurya Shanker

Thursday 10 January 2013

" तेरी परछाई ......".

आँखें बंद किए बैठी है ,
उस टूटे मोड़े पे सुबह से।

              कभी अपने सीले हाथ ,
              तो कभी बदन सेकती।

अपने ख़ुले गीले बाल सुखाती ,
धूप के पंखड़ियों पर बैठी गर्माहट से ।

                                                     तेरी परछाई .......


दिन ढलने पर कभी - कभी मिलने आती है ,
और मेरी खिड़की पे, घंटों बैठी रहती है। 

               फिर कभी, एक आँख मीचे सीटी मारकर ,
               एक अलग ही अंदाज़ में , मुझे बाहर बुलाती है।

कभी हाथों में हाथ डाले घंटों , ज़ीरो-काटा खेलती  है,
आसमान के कोरे पड़े कागज़ के, एक कोने में ।
                                                  तेरी परछाई .......

कभी उन थके ,मंद पड़े तारों से बात करते ,
कुछ उनकी सुनते , कुछ  अपनी सुनाते।

              जब बादलों पे चढ़ते थक जाता हूँ  मैं  ,
             तो उसके गोद में, सर रख कुछ देर सो जाता हूँ  ।

कभी वो अपने आँचल के कोने से कान गुदगुदाती,  
तो कभी अपने लम्बे बाल मेरे चेहरे पे डाल देती।
                                             
                                                तेरी परछाई .......



चांदनी का पीछा करते अपने ही ख़यालों में,
हम बहुत  दूर तक निकल जाते, साथ -साथ ।

              उसके पंजे ,मेरे पंजों पर,उसके हाथ मेरे कंधों पर होते  ,
              जब कभी चलते-चलते दुखने लगते थे पैर उसके।

और हमारे आँखों के जोड़े सिमट जाते, एक  हो जाते ,
खो जाते , समा जाते , पिघल कर मोम हो जाती थी।





' शौर्य शंकर '


                                              

Saturday 5 January 2013

' शोर '


चलते-चलते मैं , थक गया ,
रुका , अपनी साँसों को समझाने .

कुछ देर और लग गई मुझे,
डूबी साँसों को साहिल तक लाने में .

बैठे - बैठे देखा ,शोर चारों तरफ ,
भीड़-भार भरी सड़कों पर चलती गाड़ियाँ .

पी-पी , ट्रिन-ट्रिन शोरों के बीच ,
रेंगते से दिखते लोग थोड़े-थोड़े .

जुबां पे गालियाँ , आँखों में ख़ून लिए लोग ,
एक-दूसरे को घूरते ,बे-रहम गिद्धों की तरह .

सब को एक दूसरे से आगे निकलना है ,
क्यूँ और किस  बात की जल्दी है , पता नहीं .


' शौर्य शंकर '