Sunday 30 December 2012

" तनहाई में....."


तनहा था ,
तनहाई में फिरता था,
रास्तों से लड़ाई थी ,
कुछ क़दमों की ........

तनहा  था ,
तनहाई  में रोता था ,
आंसूओं से बेरूखी थी ,
कुछ लम्हों की .....


तनहा था ,
तनहाई में बैठता था ,
कुत्ते से याराना था ,
कुछ घंटों का ......


तनहा  था ,
तन्हाई में देखता था ,
उस लड़की से मोहब्बत थी ,
कुछ मिनटों की .....

तनहा था,
तन्हाई में लिखता था ,
उन् हर्फ़ों से ताररुफ़ थी ,
कुछ सफों की ....

तनहा था ,
तनहाई से खेलता था ,
मुंगफली से दोस्ती थी ,
कुछ 3 घंटों की .....



शौर्य शंकर

Monday 24 December 2012

"मेरी माँ "


जब कभी मैं उलझता हूँ खुद से ,
मेरी ऊँगली पकड़ सुलझाती है , मेरी माँ ...

जब कभी मुझे ठेस कोई लग जाती है ,
ज़ख्म से निकलते ख़ून को देख कराहती है, मेरी माँ ...

जब कभी मैं जीवन की आपा-धापी से थक जाता हूँ,
अपने गोद में मेरा सर रख सुलाती है ,मेरी माँ ....

जब कभी मैं देर रात घर आता हूँ ,
पलकें बिछाए मेरी राह- तक जगती  है ,मेरी माँ ....

जब कभी मैं निराशा की रात में गुम होने लगता हूँ ,
नई उम्मीद की सुबह से रूबरू कराती है ,मेरी माँ .....

जब कभी दुनिया की कड़वाहट से जी उब जाता है मेरा ,
अपने प्यार से लिपटी मिशरी की डली खिलाती है ,मेरी माँ .....

जब कभी लोगों की बातें रूह तक छेद जाती है ,
मेरी पीड़ भी उधार ले जाती है ,मेरी माँ .....

जब कभी ज़िन्दगी की झुलसती धुप में पैर जलते है  मेरे ,
पैरों के छालों पर मल्हम लगाती है ,मेरी माँ ....

जब कभी बुरी नज़रें राह घेर लेती है मेरा,
काजल बन उनसे भी लड़ जाती है ,मेरी माँ .......



शौर्य शंकर

Saturday 1 December 2012

जब मैं पैदा हुआ...

एक टक देखता, यहाँ-वहाँ।
सबकुछ, बिलकुल था नया,
देखूं जहाँ।

अनसुनी आवाज़े हर तरफ,
कभी न पहले देखे थे,
वो चेहरे।

सब पता नहीं,
क्यों खुश थे?
आँखे चमकती, घूरती, बड़ी-बड़ी, इधर-उधर,
सबकी ख़ुशी से।

हर तरफ,
आवाज़ के कुछ सिक्के,
खनकते, गिरते, लड़ते-झगड़ते से, बातें करते;
कुछ इस तरह, जैसे,
बधाई हो! बधाई हो! बधाई हो!!!

ये सबकुछ मेरी समझ से,
बिलकुल था परे।
मैं तो बस मुस्कुराता,
उन अजीब से चेहरों को देखकर।
जो बड़े डरवाने से लगते,
हँसते, नाचते, शोर करते।

सहल नहीं कुछ भी...

मैं, कागज़ और कलम हैं,
नज़रें, क्यों मेरी निश्चल हैं?
                 घूरता एक टक दीवार क्यों ?
                 ज़िन्दगी छिपकली की भी न सहल है .
मैं भुत्लाता सा जा रहा हूँ अब,
अँधेरे पड़े नींद के किसी गाँव में,
                 हर तरफ ठंडी रेत बिछी है,
                 पर ये तो मेरे पलकों की ही छाँव है .
ये रोशिनी किसके नज़रों की है,
रे पगले, ये तो अंधों का गाँव है।
                 फिर ये रोशनी सी क्या है?
                 शायद, चांदनी से भरी कोई नाव है।
देख तो, सपनों के पलंग पर बच्चे बैठे हैं।
वो धूप की पायल पहने, उनके ही पांव हैं।
                 हर बूँद, फिज़ा में उड़ती है यहाँ,
                 झिलमिल करती, इबादत की छांव है।
पानी में जुगनू तैरते हैं यहाँ,
घोड़े करते कांव-कांव हैं।
                 इन्द्रधनुष पर कबसे झूल रहा मैं,
                 अब तो सर नीचे, ऊपर लटकते मेरे पाँव हैं।

चलो जहाँ...

चलो जहाँ,
               चाँद की रोशनी हो,
               तारों की बातें हों।
                            भूतों के सपने हों,
                            परियों की यादें हों।
               कोई अनसुनी कहानी हो,
               जहाँ बचपन सी रवानी हो।


चलो जहाँ,
               रेत पर चलते छोटे नंगे पैर हों,
               हाथ में लटकाए जूते हों।
                            पैरों की हलकी निशानी हो,
                            किसी की उंगली हमने थामी हो।
               चारों तरफ बहता पानी हो,
               और नाव ,उस पार ले जानी हो।


चलो जहाँ,
               ख़्वाबों का काफ़िला हो,
               खुशियों की जवानी हो।
                            हवा कुछ सुहानी हो,
                            बादल भी दीवानी हो।
               मिटटी की प्रेम कहानी हो,
               और उस पर उमर बचकानी हो।

Sunday 25 November 2012

तू...

मेरे रोम-रोम में समाई है,
              मेरी रूहानी परछाई है , तू।
मेरी ज़हन में फैली ग़फलत है,
              मेरा हाथ थामे चलती मज़हब है, तू।

मेरे नब्ज़ में बहते ख़ून की रवानी है,
              मेरे एहसासों की जीती-जाती कहानी है, तू।
मेरे प्यार के बुत की ताक़त रूहानी है,
              ख़ुदा के इबादत की मुहँ-ज़ुबानी  है,  तू।

मेरे हर साज़ में बजती राग-भोपाली है,
              मुझमें हर पल खिलती जवानी है,  तू।
मेरे दिल के झरने से बरसती अमृत का पानी है,
              गंगा किनारे की, कोई सुबह सुहानी है , तू।



Sunday 18 November 2012

आज अन्तरंग में आके...

आज अन्तरंग* से रू-ब-रू हुए, मुझे कुछ ऐसा लगा,
जैसे कुम्भ के मेले में बिछड़ा भाई मुख़ातिब हुआ है।
जैसे यहाँ का जर्रा-जर्रा मुझे जानता हो मुद्दतों से।
यहाँ का वास्तु, शिल्प, ईमारत सब अपने से हैं,
जिन्हें मैं महसूस करता हूँ, मन के रोम-रोम से।
आज अन्तरंग में आके...

स्वर्ग सा दिखता बड़े तालाब के साहिल पे खड़ा है,
पता नहीं क्यों इसे सब, बस एक ईमारत कहते हैं।
मुझे तो इसमें दिल, धड़कन और जान सी महसूस होती है,
जो बात करती है, आप दुःख सुख कभी बांटो तो सही।
आज अन्तरंग में आके...

ये मंच मुझे ऐसा लगा, जैसे माँ की गोद हो,
जिस पर चलते लगा, आवाज़  देके बुलाती हो मुझे।
बिना कुछ खाए भी मुझे, शक्ति का अम्बार मिला  है।
जो हर लम्हा कहती है, मेरी छाती से लिपट जाना अगर डर लगे,
भले तुझे दूध ना पिलाया हो, पर माँ तो हूँ ना ,मैं तेरी।
आज अन्तरंग में आके...

जो कहती है तू कर कर्तव्य यहाँ, मैं हूँ न सराहने को तुझे,
डर मत विपदाओं से, मैं हूँ न तुझे सँभालने को।
बेझिझक कर जो चाहता है, मैं हूँ ना तालियों की गूँज बढाने को।
डर के गर्दन पर चढ़ बैठ, मैं हूँ ना तुझे राज्य-तिलक लगाने को।
अजेय बन जीत जग को, मैं हूँ ना तेरा शौर्य उस ऊँचाइयों तक ले जाने को।
आज अन्तरंग में आके...

*अन्तरंग - भोपाल का एक माना हुआ थिएटर स्टेज।

आज भी जब मैं...

आज भी जब मैं तुझे याद करता हूँ,
देर रात अपनी बुलेट पर,
तेरी यादों के साथ कहीं घूम आता हूँ।

आज भी जब तेरी हंसी याद करता हूँ,
वही उलटे मोज़े पहनकर,
कहीं दूर तक हो आता हूँ।

आज भी जब किसी जोड़े को देखता हूँ,
धड़कन ओढ़ तेरी गोद में,
कुछ देर सो जाता हूँ।

आज भी जब तुझे कुछ कहने की कोशिश करता हूँ,
तेरे नाम ख़त लिख,
तेरे पुराने पते पर छोड़ आता हूँ।

आज भी जब तुझे बारिश में भीगते महसूस करता हूँ,
तेरी भीगी खुशबुओं से लिपट के,
अपने मन को भिगो लाता हूँ।

आज भी जब तेरी आँखों को टिमटिमाते देखता हूँ,
चाँद पर सीढ़ी रख,
तेरे पलकों को चूम आता हूँ।

आज भी जब तुझे सपनों में देखता हूँ,
बादलों पर चढ़ तुझे,
अपनी आँखों में बटोर लाता हूँ।

सुबह-सवेरे...

भोर की मन्द पुंज,
                            फूलों की भीनी महक,
ओस की ठंडी बूँदें,
                            चिड़ियों की मोहक चेह्चहाहट,
मुर्गे की पहली बांग,
                            वो ठंढी शीतल रेत,
कुहासों से ढंका पग,
                            झींगुर की तेज आवाजें,
वो मवेशियों का शोर,
                            चौकीदार की सीटियाँ,
हाथ में पीतल का लोटा,
                            वो सरपट भागती सी चाल,
पतली पगडण्डी का पीछा,
                            पहुंचे बीहर के पार,
आँखें दौड़ती हर ओर,
                            वखत आन पड़ा घनघोर,
अब लोटा धर भाग लिए,
                            जा बैठे पेड़ की ओट,
बमबारी हुई बहोत जोर,
                            कुछ गंध पहचानी सी,
गाने भी गुनगुनाये वहां,
                            इमारते बनती गयी कारवां बढ़ता गया,
रवानगी ली नदी की ओर,
                            तोडा नीम का छोटा सा छोर,
मांज लिए दांत भी अब तो,
                            लोटा घिस साफ़ किया,
डुबकी मारी गंगा की गोद,
                            चंचल धारा निर्मल मन,
तन-मन भी धो लिए हम,
                            जनेऊ पकड़ साक्षात् खड़े,
सूर्य के जल अर्पण को,
                            माँ गंगे का नाम जपे,
जल भर चले मंदिर की ओर,
                            मंदिर के पवित्र दर्शन को,
मन को जगाती घंटियाँ,
                            आत्मा को महकाती अगरबत्तियां,
जो खीचे मन को अपनी ओर,
                            पुष्प और बेलपत्र लिए तोड़।
चल दिए अब भोले की ओर,
                            सीढियां चढ़ते हो गयी भोर।
सूरज मल चन्दन धूप की,
                            लगा आराधना करने अति जोर।
मैं भी पीछे क्यों रहूँ, लोटा धर,
                            पुष्प रखा, बेलपत्र ले आगे बढ़ा।
चारों ओर मन्त्र की गूँज,
                            जल चढ़ा शिव स्वक्ष किया।
पुष्प बेलपत्र अर्पण किया,
                            फिर शिव पे चन्दन का लेप।
हाथ जोड़ खुद धन्य हुआ,
                            तन और आत्मा पवित्र किया।
शांत मन ले चला,
                            अब अपने घर की ओर।

सच में कुछ भी पता नहीं...

आज निकला हूँ कुछ ढूंढ़ने,
चल रहा हूँ ,और जाना है कहाँ,
सच में , कुछ भी पता नहीं...

अथाह अँधेरी रातों में तारों का पीछा क्यों,
क्या पाने की ख्वाहिश में, सांसों का पीछा करता हूँ,
सच में , कुछ भी पता नहीं...

मैं हूँ इसलिए जीता हूँ, या जीता हूँ क्योंकि मैं हूँ,
किन खुशियों के गाँव का पता ढूंढता रहता हूँ,
सच में कुछ भी पता नहीं...

क्यों हवा से घबराता हूँ, और कभी अकेलेपन में सारा जहाँ पा जाता हूँ,
क्यों अब हर एक छोटी सी आहट होने पर भी .....मैं अब, जग जाता हूँ,
सच में कुछ भी पता नहीं...

चलूँ जहाँ मैं...

चलूँ जहाँ मैं...
                     खुल के जी सकूँ,
                            दम भर साँस ले सकूँ।
                     हवावों को छू सकूँ,
                            कुछ महसूस कर सकूँ।
                     पानी पे चल सकूँ,
                            बारिश में मन भिगो सकूँ।
                     लहरों से लड़ सकूँ,
                            इन्द्रधनुष को छेड़ सकूँ।
                     बादलों में छुप सकूँ,
                            आसमान पर चढ़ सकूँ।
                     सूरज को आलिंगन में भर सकूँ,
                            धूप के साथ खेल सकूं।

चलूँ जहाँ मैं...
                     आँखों को पढना सिखाऊँ,
                            पैरों को सम्भलना सिखाऊं।
                     हाथों को फड़फड़ाना सिखाऊं,
                            उँगलियों को छूना सिखाऊं।
                     दिल को मचलना सिखाऊं,
                            उम्मीदों को उड़ना सिखाऊं।
                     मन को सुकून चुगना सिखाऊं,
                            दर्द को मुस्कुराना सिखाऊं।
                     सोच को तेज़ बहना सिखाऊं,
                            भूख को भर पेट खाना सिखाऊं।
                     हौसले को अडिग बनना सिखाऊं,
                            आत्मा को 'शौर्य' बनना सिखाऊं।

शौर्य शंकर

याद...



यादों के गहरे अँधेरे कुएँ में,
आज तेरी तस्वीर मिली।

रंग-बिरंगी तितलियों के पीछे भागते,
आज तेरे लिखे ख़त हाथ लगे।

सड़कों का पीछा करते अपनी बाईक पे,
आज तेरे हाथ, मुझे समेटते महसूस किये।

पूजा के फूल खरीदते हुए मैंने,
तेरे बदन की खुशबू की एक अया है पाई।

ठंडी रात में सिकुड़ के सोते हुए,
आज तेरी सुकून भरी गोद की याद आई।



शौर्य शंकर 

हम सदा ही मुस्कुरायेंगे...

चलो आज एक वादा करें,
हमेशा खुश रहने की,
चाहे परिस्थितियां हों कुरूप,
                                         हम सदा ही मुस्कुरायेंगे।

चाहे दिन हो या रात,
हम दूर हों या पास,
अकेले हों या सबके साथ,
                                         हम सदा ही मुस्कुरायेंगे।

कोई थक जाये, तो अपना हाथ थमाएंगे,
कोई गिरे, तो हम उसे उठाएंगे,
हर एक डर को, दिल से खदेड़ भगायेंगे,
                                         हम सदा ही मुस्कुरायेंगे।

दुःख की रात में चल कर,
सुख का सूरज पाएंगे,
पर्वत चीर अब तो, राह बनायेंगे,
                                         हम सदा ही मुस्कुरायेंगे।

एक-एक दुःख के ईंटों में,
मेहनत का गारा लगायेंगे,
तब सपनों का महल बनायेंगे,
                                         हम सदा ही मुस्कुरायेंगे।

कई सालों बाद...

आज खुद को महसूस किया है,
        पलकों पर पड़े धुल हटाये हैं आज,
                                                          कई सालों बाद...

आज आँखों से रंगों की खनक छुई है,
         कान जो चुप सहमी थी, मुस्कुराई है आज,
                                                          कई सालों बाद...

आज पथराये होंठ जो तेरे होंठो की छुवन से उठ बैठे हैं,
        मेरा दिल जो दफ़्न था ग़मगीन समंदर तले, उसने भी कई राग गए हैं आज,
                                                          कई सालों बाद...

आज सोचा शायद पहले मैं सिर्फ साँस ही लिया करता था,
         पर आसमान से ज़िन्दगी की गहराई में कूदा हूँ आज,
                                                          कई सालों बाद...

आज महसूस किया कि एक-एक सिक्के ख़ुशी के बिनते, मैं थक चूका था,
        तुझमे ही वो अनमोल गोहर पा लिया है आज,
                                                          कई सालों बाद...




शौर्य शंकर

बारिश...

मोती से गिरते बारिश की बूंदे,
गिरते मन को भाते हैं।

उछलती कूदती खुशहाल बच्चों सी,
सबको एक सी भिजती है।

इस बेरन धरती को एक बूँद ही तो,
अपनी किलकारियों से माँ बनाती है।

छूने में तो आम नीर है,
पर बरसों से प्यासे मन की प्यास बुझती है।

"टुकड़े..."

मेरे प्यार के टुकड़े, जो ज़मीन पर बिखरे थे।
आज उसे चिड़िया चुग ले गयी।

तेरी आवाज के टुकड़े जो मेरी जेब में पड़े थे।
आज धुल गए कपड़े धोते हुए।

वो मेरी आह के टुकड़े, जो लहूलुहान पड़े थे।
आज मेरी माँ के पैरों में चुभ गए।

मेरी आँखों से टपकते खून के जो टुकड़े पड़े थे।
कुछ शिकारी कुत्ते खड़े चाट रहे हैं उसे।

मेरे दिल के जामे के जो टुकड़े पड़े थे।
आज सड़े मांस की तरह बास करने लगे।

मेरी नब्ज़ में तैरती तेरी यादों के जो टुकड़े पड़े थे।
आज वो नब्ज़ भी सूखे के मारी पड़ी है वहीं।

तेरे झूठे इश्क के कील के जो टुकड़े पड़े थे।
आज मेरे गले को छेद चुके हैं।

वो तेरे प्यार में बजते घुँघरू के जो टुकड़े पड़े थे।
आज तूने उसे अपने जूती के नीचे कुचल दिया वहीं।

वो मेरी पलकों पर हमारी यादों के घोसलों के जो टुकड़े  पड़े थे।
आज भी तिनकों के मलबे तले उनकी लाशें दबी है वहीं।

Tuesday 16 October 2012

खाली गलियाँ..




वो बचपन की खुश्गप्पिया वादियों मे ,
शोर -गुल के रंग भरते दुनियाँ के कागज़ पे ।

ये लम्बी खाली गलियाँ बाहें पसारे,
पल मे समेट लेती हमे अपनी आंचल मे ।

जैसे किसी बांझ के आँगन मे ,
किलकारियाँ गूंजी  हो कई सालों मे ।

वो खाली मकान खड़े बेरन से,
हर शाम दुल्हन बनती हमारे जाने से ।

दीवार की दरारों से झाँकती नज़रें ,
जैसे दीदार को बेसब्र हो अया न पाने पे ।

गुप्प अँधेरों के जंज़ीरों से लिपटी,
जैसे कोई संगीन सज़ा काट रही हो ज़माने से ।

ज़ीना दर ज़ीना कर आया हूँ ,
पर क्यूँ डर लगता है अब गिरजाने से ।


शौर्य शंकर

कब से ....


मैं दिल की खिड़की पर बैठा हूँ ,
कब से, तेरी एक अया पाने को ।

मैं धूप की आढ़ मे खड़ा हूँ ,
कब से, तूझे पलकों से छू जाने को ।

मैं हवा मे रूई सा बहता हूँ ,
कब से , तेरी पल्लू की महक पाने को । 

मैं नींद बना जगता हूँ ,
कब से , तेरी ख़्वाब मे आने को । 

मैं हर हर्फों मे गुदा हूँ ,
कब से , तेरी ज़ुबा छू जाने  को ।

मैं इबादत बना फिरता हूँ ,
कब से, तेरी रूह मे समाने को ।

मैं काजल बना चिपका हूँ ,
कब से , तूझे बुरी नज़र से बचाने को । 

मैं तेरी खुशी मे महकता हूँ ,
कब से, तेरी बलाई लवों पर आने को ।

मैं दिन-रात तेरा ही नाम जपता हूँ ,
कब से , तेरी मुहोब्बत मे ख़ुदा पाने को ।

मैं तेरी ख़ून मे गुलाब सा रहता हूँ ,
कब से , तेरी रग-रग मे समा जाने को ।


शौर्य शंकर 

कुछ सवाल



लहुलुहान ये मिट्टी, 
ये  अलाव में मकान।
ये चीखें है किसकी ,
ये कटी है क्यूँ जुबान ।
सन्नाटों की ये फिज़ा, 
क्या दहशत की है छाँव?
ये बेगैरत जदा गाँव ,
लाशों पे क्यूँ रखा है पाँव?
ये सरहदों के नासूर ज़ख्म  ,
मुर्दे भी मांगते है यहाँ कफ़न ।

Monday 15 October 2012

"किताब"


तुम्हारी किताब जो मेरी  मेज़  पर रखी है ,
उसमे रखा गुलाब सुख गया है ।
                हर एक पन्ने से आती खुशबू ,
                 ये खुशबू तेरी  है या गुलाब की ।

मुद्दतों बाद मैंने एक अया पाई है ,
इस किताब मे अपने बिसरे यादों की ।
               तुम्हारी बातें , नटखट इरादे और  सादगी,
               सब सैंत के रखा था, दिल की तिजोरी मे ।

वक़्त के जालों मे लिपटी ,दबी सी  ,
एक कोने मे भुलाई पड़ी थी कब से ।
               सदियों बाद ही सही गठरी खोली है ,
                आज गुस्ताखी की, यादों के बुत मे जान फूकने की ।
इस वक़्त के पहिये की रफ्तार कुछ ज्यादा ही है ?
हज़ारों पन्नों की ज़िंदगी , एक पल के पुड़िया मे रखी थी ।
               कभी रो देता हूँ उन हसते यादों मे ,
               कभी हस देता हूँ उन रोती  यादों पे ।
छु हो गई  ,एक चुटकी  मे कहीं ,
ज़िंदगी थी ,चलो कल की ही सही ।
             वो याद है तुझे , कैंटीन मे मेरा चिढ़ाना,
             फिर बिना बात के दोस्तों से मुझे पिटवाना ।
वो तेरा चिढ़ना, मेरा चिढ़ाना ,
मेरे लंबे बालों मे तेरा उँगलियाँ फिराना ।
             घनी दाढ़ी ,जीन्स ,कुर्ता और कोल्हापुरी चप्पल ,
             यही वो दिन थे जब मैं ,मैं हुआ करता था ।
हर पल साथ रहना आदत सी थी हमारी,
क्या पता था , इस पर भी वक़्त की मिट्टी जम जाएगी ।
            हर चीज़ पे हसना , बहस करना  फिर बात मनवाना ,
           सच , हम किसी की भी नहीं सुनते थे ना ।
वो क्या था हम दोनों के बीच नहीं पता ,
शायद इसीलिए कि हम, ना-समझ बच्चे थे ना ।
           पर कुछ  खास तो था उस बचपन मे ,
           तभी तो एक टीस है अभी भी इस मन मे ।
वो प्यार , वो दर्द आज समझ पाया हूँ ,
शायद यही सज़ा है मेरी , जहां हूँ ....... भटकता आया हूँ ।
            आज भी वो किताब मेरे पास रखी हैं ,
            जो मेरी बेवकूफ़ियों से मुझे रूबरू कराती है।
जिसमे तुम्हारी स्नेह की स्याही रची है,
जिसमे तुम्हारे प्यार के लफ़्ज़ गूदे हैं ।
             जिसमे मेरी गुनाह और नासमझी के पन्ने हैं,
            तेरे आँसू और कराह की जिल्द चढ़ी है ।
काश ये किताब कोरी हो जाती फिर से ,
मैं इसे प्यार के सुनहरे स्याही से ,फिर सजाता ।



शौर्य शंकर


साया मेरा


ये चलते कौन आगे निकल गया ,
             जो पीछे होने का एहसास दे गया मुझे ।
चल तू आगे निकल इससे  सोचता हूँ ,
              पर वो तो धुंध हो गया .............
वो कौन है  ,वहां सड़क के किनारे ?
              ऐसे क्यों बैठा है पेड़ के सहारे ? 
शायद ...शराबी है मदहोश ,
              अपना सा दीखता ,पर क्यूँ बैठा  है खामोश  ?
चलूँ  देखूं तो सही , है कौन  ? 
              पर गदली मंद रौशनी में दीखता भी तो नहीं ।
औंधे मुह पड़ा बड़बड़ा रहा कुछ अब ,
               ये आवाज़ तो सुनी है , पर कब ।
कभी हँसता ,कभी रोता , कौन है ये ?
               ज़हनी मशक्क़त कर रहा , कब से ।
उसे पलट पुछा , कौन हो भई ?
               हालत देख ,रूह मेरी मुह तक चली आई ।
ख़ून से लतपत जिस्म  उसका ,
              जैसे हर रोम चिन्घाढ़ रहा ...मदद को ।
पुछा  क्या हुआ तुझे  ,
            " ज़िन्दगी  के थपेड़ो के जख्म है ये " ।
 पर  अपने ज़ख्मों को देख़  हँसता क्यूँ  है ?
               पागल है शायद ,अब तो शुबा  है ये   ।
गोद मे उठा, ले चला दवाख़ाने  की ओर ,
               एक अजीब सी खुशी थी, जब देखा उसके चेहरे की ओर ।
जिस्मानी मशक़्क़त देख आँख भर आई,
रोता है क्यूँ तू ,यही तो ज़िंदगी है मेरे भाई ।
खुशी बेवफ़ा-सी , पल दो पल ही साथ थी ,
दुख की दोस्ती है ,जो साथ चलती है आई ।
अचानक सांस उखड़ने सी लगी, मेरी यों ,
               उसने कहा कुछ देर तू रुकता नहीं, क्यों  
सड़क किनारे पुलिया पर बैठ साथ उसके,
               उखड़ती बेचैन साँसों  को मैं समेटने लगा । 
देख मुझे वो बोला हिम्मत की पगड़ी बांध ,
               होसले के पंख फड़फड़ा , डर पे नकेल लगा ।
ये कह नम आँखों से मुझसे लिपट गया,
               मुट्ठी मे बंद रेत  सा पल मे फिसल गया ।
उसकी कराह क्यूँ महसूस होने लगी ,
               हर लम्हा रुई  सी हवा मे बहने लगी । 
आँख खोली ....उसका नामो निशां न था ,
              हर ज़र्रे से , पल मे वो फनाह सा था ।
उसकी आवाज़ ज़हन मे दस्तक दे रही थी,
              दरवाज़ा खोल देखा कोई भी खड़ा न था ।
उदास दिल की उँगली थामे चल पड़ा ,
              ला-इलाज ज़ख्म यादों की मुझे वो दे गया ।
हर लम्हा क्यूँ अजगर सा चिपटा है?
              क्यूँ आईने मे वो मुझे दिखता है ?
पाकीज़ा इबादत सा मुझमे घर कर गया ,
              ख़यालों मे उसकी बातों का किला दिखता है ।
ये कौन है ! कोई फरिश्ता तो नहीं ,
             साया हूँ मोहसीन ,मुख़ातिब जुर्रत-ए-मुख्तार  को ।


शौर्य शंकर 

" कदम "

 


उन नन्हे-नन्हे  कदमों पर ,
     जो ज़मीन पर जमे न थे .

हरकत तो थी उनमे ,
    पर काबिल बने न थे .

उम्मीदों के बोझ भी अब तक ,
    जिसने कभी सहे न थे .

अभी -अभी चलने शुरू किये ,
    पर ठीक से कहीं पड़े न थे .


शौर्य शंकर 

Saturday 29 September 2012

" तुझे महसूस करता हूँ "

 
      भोर के पीली धुप में ,
कभी ओस के बूंद में .
      नंगे पैरों के छाप में ,
कभी असमंजस के हाल में .
     उस तेज़ हवा के झोखों में,
कभी बादलों के नाव में .
     तुझे महसूस करता हूँ ......


पत्तों के उड़ते साँस में,
     कभी फूलों के मुस्कान में।
बहते पानी के अहँकार में,
    कभी पत्थर के कोमल प्यार में .
अगरबत्तियों के जलने के मकसद में,
  कभी चन्दन  से महके संसार में .
तुझे महसूस करता हूँ .......


उड़ते होठों के पंख में ,
      कभी टिमटिमाते नैनो के जाल में .
ठंडी धुप के सेलाब में ,
     कभी आसमान से गिरते आब में .
तुझे महसूस करता हूँ ....


शौर्य शंकर


" ये चेहरें .."


           कभी टिमटिमाते ख़ुशी से ,
  कभी नाराज़ अंधेरों में गुम से  .
           कभी ज़िन्दगी की गठरी ढोते से , 
  कभी उम्मीदों की पतली पगडण्डी पे लड्खराते से .
          ये चेहरें ....

कभी बिना शर्म की नज़रों से ,
     कभी बिना मुस्तकबिल के माथे से .
कभी बिना सुहाग के  दुल्हन से ,
तो कभी नापाक इरादों से दिखते 
      ये चेहरें ....

   कभी सफ़ेद पड़े मुर्दे से ,
कभी टीस भरी घावों से .
   कभी जंग लगे इंसानियत से ,
कभी नापाक हुए इबादत से दिखते 
      ये चेहरें .....

शौर्य शंकर 

Wednesday 29 August 2012

" आज फिर एक सच है देखा .."


आज फिर सच के कोख में ,
झूठ को पनपते, है देखा .

भरे हुए मटके में से, 
कपट को छलकते ,है देखा .

खुद पे विशवास करने वालों का भी ,
आज विशवाश डिगते ,है देखा .

दोस्ती-यारी का मन्त्र जपने वालों को भी ,
लोगों के ज़ख्म कुरेदते , है देखा .

भगवान् सी सीरत वालों को भी,
अपनी ही पीठ के पीछे छुपते, है देखा .

हाँ मै बुरा ही सही, इन बुरों के लिए ,
क्यूँ पलकें नम हुई , कोने में बैठे उनको, जब सिसकते ,है देखा .

तू तो दर्द में ही रोता - बिलखता है,
मैंने तो ख़ुशी में भी ,लोगों को होठ सीते ,है देखा .
   
इस दुनिया में हम जैसों का कुछ तो , हों यारों ,
क्यूँ अपने रूह से ही, अपने जिस्म को बिछड़ते, है देखा .

गलत फ़हमी थी की इंसान हूँ, पर दिमाग की दौड़ के बाद ,
हर रोम से पसीने की जगह, खून की बूंदे टपकते , है देखा .

खून कितना प्यारा शब्द है ना, पर क्यूँ ?
आज हर एक कतरे को  दूसरे से  झगडते , है देखा .

प्यार से तो खौफ् सा होता हे अब , क्या इसीलिए ?
नफ़रत को तहेदिल से , लोगों के आलिंगन में समाते, है देखा .

अब तो मेरी आँखों ने भी पुछ लिया है मुझसे ,
क्या झुलसते द्वेष की गर्मी को दिल के बर्फ् खाने में , है देखा .
    
पहले तो तकल्लुफ़ और शुक्रिया जैसे शब्दों का ज़माना था ,
पर अब तो अंग्रेजी की गालिओं की फरमाइशों  में लोगों को खोया , है देखा .
    
जनाब पहले की गालियाँ भी बड़े एहतियात और प्यार के लाफ्फ्जों में लपेट के परोसी जाती थी ,  
पर अब तो प्यार के बोल में से भी , तौहीन की नापाक बू आते है देखा .

हम उनलोगों में हैं , जो दुख़ में भी ख़ुशी तलाशते हैं ,
पर क्यूँ अब सब कुछ आस-पास,  नगवार होते है देखा .

जीना तो तब सीखा  हमने , मुर्दों को भी जब,
अपनी आखरी ख्वाइशों के लिए झगड़ते है देखा .

आज फिर एक सच है देखा ..



शौर्य  शंकर 

Saturday 25 August 2012

"पुराने दिवार पे लगे फटे पोस्टर की तरह...."

किसी पुरानी दिवार पे ......

किसी पुराने दिवार पे लगे, फटे पोस्टर की तरह ,
ज़िन्दगी के भी चिथड़े हुए पड़े हैं . 
जिसे आंधी का डर तो ज़रूर है , पर करे क्या ?
अपने फटे कोने की परछाई में , अपना मुह छुपाए पड़े हैं . 
रात की सीली हवा में , ठण्ड लगने का डर भी तो है .
ओस की वो बूंदें जो माथे पे, पसीने की तरह पडे हैं .
जो पोस्टर और दिवार के बीच लगे गोंद के रिश्ते को ,ढीला न कर दे ,
जिसकी वज़ह से ये अस्तित्व जो सलामत  हैं .
किसी पुराने दिवार पे लगे फटे पोस्टर की तरह .....

पर डर सिर्फ इन विपदाओं का ही नहीं ,
डर तो उन छोटी चीटीओं से है अब .
जो दावत करने को गोंद के टुकड़े ले जाते हैं.
सुना है! चीटीयां बड़ी मेहनती होती हैं , फिर क्यों ?
सिर्फ जाने के लिए, मेरी किस्मत में इतने छेद कर दिए हैं.
कुछ डर तो गली के ,उन आवारा बच्चों से है ,
जो हाल ही में , न जाने कितनो का घर उजाड़ चुके हैं .
अब कुछ ही हैं , जो सहमे से कांपते हुए ,
बड़ी -बड़ी आँखों से ,अपनी आती मौत तलाशते रहते हैं .
जो पता नहीं अगले दिन देखने की ख्वाइश रखते भी हैं, के नहीं .
किसी पुराने दिवार पे लगे फटे पोस्टर की तरह...........

जब तक कोई फ़रिश्ता आके उनको ,
किसी नए दौर के सुंदर पोस्टर के नीचे न दबा दे .
इस गुमनामी के आढ़ में ही सही,
अब किसी का डर तो नहीं होगा .
ज़िन्दगी गुमनाम तो हो ही जाएगी ,
पर रहेगी तो सही .
किसी पुराने दिवार पे लगे फटे पोस्टर की तरह.......



शौर्य शंकर 

" काश एक उधार की चाय हो जाती ....."


सीधी लम्बी सड़कों पर ,
टेढ़े लोग क्यूँ बस्ते हैं .

इन लम्बी -लम्बी गाड़िओं में,
ख़ूब तेज़ म्यूजिक क्यूँ बजते हैं .

खुद की आवाज़ तो सुनते नहीं ,
फिर माशरे को क्या सुनाते हैं .

कहने को सब कुछ है पर ,
खुद से नज़रें क्यूँ नहीं मिलाते हैं  .

अब तो भूख भी नहीं लगती ,
सब कुछ बटोरते क्यूँ रह जाते हैं .

आज पैसा, नाम सब है पर,
माँ के पैर छुए सालों क्यूँ हो जाते हैं .

साथ रहते हैं सब पर ,
कोनो में बंद क्यूँ रह जाते हैं 

एक वो दिन थे बहार के जब ,
संसार की चीज़े समझते ही नहीं थे 

पहिये लगे रहते थे पैरों में ,
पल में दुनिया टटोल लिया करते थे .

पार्क के जंगले के नीचे से चाय की घुसपैठ करके ,
छोटे -छोटे फलसफों पे हस्ते रहते थे .
.
हमें हसी तो हर बात पे आजाती थी ,
पता नहीं क्यूँ और किस बात पे हँसते रहते थे 

फ़िक्र तो शब्दकोष से बाहर थी हमारे ,
जेब में अठन्नी बगैर ही हम राजा हुआ करते थे .

शम्भू की दुकान पे रोज़ शाम जमघट लगाके ,
छोटी -छोटी बातों पे उसे चिढ़ाया करते थे .

चाय ठंढ़ी ,कम मीठी तो कभी गंदे ग्लास के बहाने ,
तो कभी एक -एक और चाय के लिए उसे मनाया करते थे .

उसकी उधार  की लम्बी लिस्ट निकालने पर ,
एक दुसरे की तरफ देखकर "आज मेरा भाई पैसे देगा " कहते थे .

भाई खुद भी यही कहने वाला होता था ,
फिर अपनी -अपनी खाली जेबे टटोला करते थे .

जब फटी जेब दिखा कर भी काम न बनता था ,
तो उसकी गन्दी मुछों की तारीफों के जाल भी बुना करते थे .

बड़ी मशक्कत के बाद ही  सही वो जरा सा मुस्काता था ,
माँ कसम एक और चाय का जुगाड़ हो जाता था .

अब तो बिस्कुट की भी गुंजाईश बनती थी ,
फिर थोड़ी और कहानी, ज़ुबान हमारी बुनती थी .

बारिश की ठंडी हवा के झोकों से ,
लोगों को कभी भागते तो कभी छुपते देखा करते थे .

क्या पता था ज़िन्दगी के थपेड़ों से,
कभी हम भी भागते तो कभी छुपते रहेंगे .

सारांश इसका समझा नहीं अब तक ,
जी रहे हैं अब या पहले ही जिया करते थे .

काश एक उधार की चाय हो जाती .......



शौर्य शंकर 


" इन् अँधेरी रातों में ...."



खोया सा खुद में ,
      अँधेरी सड़कोँ पर .
आस पास  का होश नहीं ,
      सन्नाटों का गिरेवां चाक किये .
विचारों की दलदल में ,
      पैरों का धसते जाना .
जूतों की टापें और 
      पत्तों की सरसराहट का होश कहाँ .
मिट्टी की ख़ुशबू ही ,
      बस हमसफ़र सी लगी .
इन्  अँधेरी रातों में ....


नज़र अंदोज़ तो हुए हैं हम ,
        क्या, कहाँ ख़बर नहीं .
शायद वो बिलखती रात,
        जो बीहड़ में बेवा सी बैठी .
कोह-ए -मातम पर सर पटकती ,
        गुप्प अंधेरों की तारीकियों से बचती .
वैहशत-ए-क़ल्क-ए-ख़ून, जोंक की मानंद ,
        हर क़तरा इख्तिताम से रुबरु कराती .
दहशत  झाँकती चाक -ए -जिगर से ,
       करादी ताअर्रुफ़ नूरे आफ़ताब से.
इन्  अँधेरी रातों में ....


तर्क कर आब -ए -नज़र , छोड़ दे दर्द -ए -क़हर ,
       अश्कों से कर गर्क -ए -सहर .
क्यों डरती है फुफकार से ,
       डंका बजा तू अपने ललकार से  .
चल उठ निडर , हो के बेख़तर ,
       ठहरा है कब मश्क़ -ए -बहर .  
मुनतज़िर ना हो तुलु-ए-सहर का कदम बढ़ा-ए-बशर,
      तेरा "शौर्य" गवाही देगा इस कायनात को .  
इन्  अँधेरी रातों में ....




शौर्य शंकर 



Wednesday 15 August 2012

" मेरा सपना कहीं खो गया .."

पता नहीं कहाँ, मेरी पलकों से फिसल गया ,
मेरा सपना, जो मेरा अपना था, कहाँ चला गया!

समुद्र की गहराई में समाए, मोती सा शांत है,
इतना प्यारा, बिलकुल छोटे फ़रिश्ते सा है।

ख़ामोश रात में, हवाओं की बातों सा है,
पता नहीं कल से कुछ खाया भी है, के नहीं।

उस बेचारे के  पास तो, पैसे भी नहीं हैं,
पैसे की बात छोड़ो ना ... उसको तो ....!

बोलना भी नहीं आता अभी तक, जो कुछ कह भी सके ,
कहीं कुछ हो न गया हो उसे,मैं क्या करूं !

कोई तो मेरी मदद करो,
मेरा सपना कहीं खो गया।

मैं क्या करूं, कोई बताओ न मुझे,
मैं कहाँ जाऊं ,किससे मदद मांगू।

कोई तो फ़रियाद सुनो मेरी,
अरे लादो ना कोई, सपना मेरा।

उसके बगैर मुझे चैन नहीं है, अब तो,
दिन-रात जागता रहता हूँ, खयालों में उसके।

मेरे दिल के चौखट पे दस्तक दे रहा है, देखो न,
वो फिर पुकार रहा है मुझे, मदद के लीए।

डर के मारे मेरे पैर, पथरा गए हैं,
क्यों, ये मेरा ख़ून जमता जा रहा है?

हाथों को क्या होता जा रहा है, ये क्यूँ हिलते नहीं?
मेरी पलकें, क्यूँ थम सी गई हैं अब?

ये अँधेरा सा क्यों छाने लगा, आँखों के सामने?
मुझे कुछ दिखता क्यूँ नहीं अब?

ये आवाज़ किसकी है, कौन हँस रहा है मुझ पर?
दूर हो जाओ मुझसे, मैंने क्या बिगाड़ा है तेरा?

ये आवाज़ तो, और तेज़ होती जा रही है,
मुझे बक्श दो न, मैं तो बस अपने सपने को ढूंड रहा हूँ।

कोई तो मेरे कान ढांप दो ,और नहीं सुन सकता ये शोर,
अचानक से ये क्या हो गया मुझे ,कुछ भी सुनता क्यों नहीं?

ऐ मन, तू डरता क्यों है पगले,
कुछ पल के लिए ही सही, ज़िंदा तो हूँ।

मेरा दिमाग मुझे निकालेगा, इस भवर से ,
पर ये यूं हर छण, झपकियाँ लेता क्यूँ है?

चाहे सब छूट जाए, पर मेरी हिम्मत साथ तो है,
मैं नहीं कोई गम नहीं, मेरी हिम्मत और सपना तो है।

मेरा जिस्म समझता क्यूँ नहीं, मेरा जाना कितना ज़रूरी है
शायद, मेरे जिस्म का साथ यहीं तक का था।

पर ये तलाश ज़ारी रहेगी,
क्यूंकि मेरा सपना कहीं खो गया है ....


शौर्य शंकर 

" खयाले आज़ादी "

खयाले  आज़ादी .....

मुझे अफ़सोस करते मुदत्त हो गई हैं ,
कि मैं सोचता हूँ, अपने मुतल्लक।

अब सहर की ख्वाइश करता हूँ ,
पर शब-ए-चाँद से ही तस्सबुर-ए-सहर करता हूँ।

खुशी की एक अया पाने की ख्वाइश में, मैं 
क्यों नहीं एक आना भी वक्फ कर पाता हूँ?

मुझे क्या ज़रूरत है कुछ करने की ,
हर अदना चीज़, बाज़ार से खरीद लाता हूँ।


मेरी ज़िन्दगी, सिर्फ मेरी ही नहीं है,
फिर क्यों अपने माँ से भी पोशीदा रहने लगा हूँ?

यही कमी शायद आज की नस्ल रखते हैं,
कुतुबखाने में भी, सोच को महदूद करते हैं।

एक कतरा भी अब बांकी नहीं, वक्फ के लिए ,
गैरत से वाकिफ़ ही तो नहीं हुआ करते हैं।

जब गैरत से रूबरू ही नहीं हुए कभी, तभी तो  
पाकीज़ा आबरू को सरे आम, बेआबरु किया करते हैं।

अरे बेवकुफों, ये बेईज्ज़ती  तुम एक माँ की कर रहे हो,
ऐसे ही होते हैं जो, खुद की माँ की आबरु भी बेच दिया करते हैं।

जो अपनी माँ के दामन को सर-ए-आम तार-तार कर दें,
धरती माँ की आबरु नीलाम करने से, क्या परहेज करेंगे?

अब तो घिन्न होती है, ऐसी नई नस्ल से मुझे,
पर मैंने कर्तव्यों की मशाल रोशन कर ली है, इसे बदलने को।

हमें आज़ादी तो अंग्रेजों से मिल गई है, पर
गुलामी आज भी अपने मन की किया करते हैं। 
.
लो कर दी इब्तिदाह-ए-मश्क़-ए-सुखंविर हमने , 
अब उस ऊरूज तक ले के जाना है, "शौर्य" अपना।



Saturday 4 August 2012

About Me

I am still finding me inside myself ...in love with myself .... magnanimous and deeply emotional . I find everything very beautiful and attractive . Even i am unable to understand my nature of being extra protective ,loving and caring to everyone around me . God has gifted me with a very pure , transparent and deep heart to feel everyone but with totally opposite cruel kind of face with deep n husky voice . I believe and what I find in all relationship is purity .
But I find it very very rare.....so keep looking for more....