Tuesday 16 July 2013

"वन्दे-मातरम"



कुछ ऐसी ही दुनियाँ रह गयी हैं,
जहां सच्चाई, अच्छाई की कोई कीमत नहीं।

जहां मेहनती होना अपराध है,
घोर अपराध।

जहां लोग इसी ताक में खड़े हैं,
कि लीप दिया जाए सबको अपने ही जैसे,
निकम्मे पन की कालिख़ से।

अब कुछ ऐसे ही लोग देश चलाते हैं,
नयी पीढ़ी के जीवन का मार्ग दर्शन और फ़ैसला करते है।
कुछ ऐसे ही लोगों के हाथों मैं हमारे देश और हमारा सुनेहरा भविष्य है।
जिनकी खुद की हथेली पे जातिवाद और भ्रष्टाचार की ग्रीस लगी हैं।

ताकि कोई अपने ढंग से जी ना सके।
अपनी एक नयी जगह और पहचान न बना सके।
एक अलग रास्ता न चुन सके।
अपना सफ़र पूरा न कर सके।

इसी विडम्बना के भयानक दाग को अपने चेहरे पर लिए,
हमारा भारत वर्ष रोज़ सुबह उठता है…. 

"मैं अकेला ही रह जाता हूँ"



दुनिया की इस भीड़ में ख़ुद को,
अक्सर में खोया पाता हूँ।

लोगों की इस सरगर्मी में,
हर एक चहरा जब नया पाता हूँ।

कुछ को पास आते,
कुछ से खुद दूर होता जाता हूँ।

हस्ते तो सब हैं यहाँ पर,
खुदसे क्यों उन्हें ख़फा पाता हूँ?

"ऐसा क्यूँ है"  पूछता हु खुदसे,
फिर खुद को ही समझाता हूँ।

मुखौटे हैं सबके चहरे पे यहाँ ,
जब रोज़ उन्हें खुदकी रूह दफ़्नातॆ पाता हूँ।

नाकुछ देखता हूँ, ना सुनता हूँ;
अँधेरे में बेख़ौफ़ सड़क पार कर जाता हूँ।

अपने अकेलेपन को खुद में छुपाये,
सबसे बचते जल्दी से जीना चढ़ जाता हूँ।

अकेलापन गीरेबां से बाहर ना झाँक ले,
इसी लिए उसे चुप चाप पुल के नीचे छुपा आता हूँ।

और मैं फिर अकेला ही रह जाता हूँ ....

"तेरी तरह"

तुम्हारी कविताओ से खुशबु आने लगी है।
कुछ नयी बेलें  निकल आई है ,
कुछ नए फूल खिले है।

उन्ही फूलों में से, जो मुरझा गए थे।

कुछ को घर के पीछे की क्यारी में रोप दिया था।
मेरे पीछे, कुछ ही दिनों में उसकी बेलें,
देखो न छत्त तक चढ़ आई है।

अब उन्ही बेलों में वैसे ही ख़ुशबू वाले फूल खिले है,
जो पूरे घर को महकाया करती है, तेरी तरह।


कभी आँगन में कुर्सी पर बैठे अपने बाल सुखाती।
कभी सिलबट्टे पर चटनी पीसते मेरी लिखी नज़्मे गुनगुनाती, तेरी तरह।


कभी आइना चमकाती है मेरे चहरे पर,
कभी वही नींबू  वाली काली चाय बनती है, तेरी तरह।

कभी सोते हुए चद्दर खीच ले जाती है,
कभी गीले बाल चहरे पर डाल जगाती है, तेरी तरह।

कभी साड़ी के कौने में चाभियाँ बाँध घुमती है,
कभी चूड़ियां खन्नका के बात करती, नाराज़ होने पर, तेरी तरह।


अब तुझे याद करता हूँ उन्ही के दरमियाँ बैठे,
और उनसे घंटों बातें करता हूँ
तेरी गैर-मौज़ूदगी में  ....



~ शौर्य शङ्कर


Friday 12 July 2013

"अब मैं डरता नहीं"



अब मैं गरीबी से भी डरता नहीं।
क्यूंकि खुद को दिल की सल्तनत का सुलतान मान लिया है मैंने।।

अब मैं ख़्वाब टूटने से भी डरता नहीं।
क्यूंकि ख़ुद पे विश्वास करना, सीख लिया है मैंने।।

अब मैं मौत से भी डरता नहीं।
क्यूंकि हर पल को जीना, सीख लिया है मैंने।।

अब मैं डूबने से भी डरता नहीं।
क्यूंकि समुन्दर की गहराई से, दोस्ती कर ली है मैंने।।

अब मैं मंज़िल की तलाश करता नहीं।
क्यूंकि ख़्वाबों को हमसफ़र, बना लिया है मैंने।।


-शौर्य शंकर

  

"कोई बता दे मेरे साथ ऐसा क्यूँ है "

तीन दिन से पड़ा हूँ मैं कोने में यूँ ही।
जैसे रखे सामान में से, मैं भी एक हूँ।।

 लोगों के दिन में, मैं सहर देखता हूँ।
उनके शाम में, अपनी दोपहर को।। 

लोगों के शब् में अपनी शाम खोजता हूँ। 
तो सहर में अपनी आँखों की रैना को।।   

क्या दुनिया से मैं एक पहर पीछे हूँ ?
 या वो मुझसे आगे भाग रही है।।

पहले माँ की गालियाँ भी लुफ्त-अन्दोज़ कर जाती थी। 
अब माँ की हलक में भी रेगिस्तान हुआ करता है।।

पहले तो गालियाँ भी मुतासिर न हो पाती थी। 
अब चुप्पी भी खंजर से हालाक किया करती है।।

अब कहाँ जाऊ, किस्से बात करू और क्या?
चलते हुए भी रुके होने का एहसास, ज़हन में पाता हूँ।।

मेरी दुनिया थक के, थम चुकी है कब की।
पर दुनिया को हरवक्त, रफ़्तार को तैयार पाता हूँ।। 

क्या है ये मुझे मालुम नहीं, न ही जानना है मुझे? 
पहले लोग, मुझमे ही सारा जहाँ पा लिया करते थे।। 

कल तक, जो महफिलों का चराग हुआ करता था। 
आज वीरानों की सिली बू सा बेहाल रहता है।। 

ये गलती किसकी है कुछ मालुम नहीं।
पर हर गलती की गवाही मैं भी दिया करता नहीं।। 

चलता हूँ मैं अब उन् दोस्तों के आगोश में। 
जो बिना किसी मतलब भी, पनाह देते है मुझे।।


-शौर्य शंकर 
   

"किसी से मुझे भी मिला दे कभी "


किसी से मुझे भी मिला दे कभी। 
किसी का आशिक़ ही बना दे कभी।।

किसी पे मैं भी जान छिड़कूँ कभी। 
उसके दिल की धड़कन बन जाऊं कभी।। 

किसी की आँखों में डूब जाऊं कभी। 
उसके काम ये ज़िन्दगी आजाए कभी।। 

किसी की मुस्कुराहट पे साँस थम जाए कभी।
उसके होटों पे मेरा नाम ही आजाए कभी।।

किसी के दिल में धड़कन बन धड़कूं कभी।
उसको चूम के नब्ज़ में उतर जाऊं कभी।।

किसी की सपनो में मैं घोड़े पे आऊं कभी।
उसको भरी महफ़िल में अपना बनाऊँ कभी।।

किसी को अपनी बाहों में ले गाने गाऊँ कभी।
उसकी सुनहरी किस्मत मैं, बन जाऊं कभी।।

किसी की हर पल को धड़कना सीखाऊँ कभी।
उसकी दुनिया को फूल बन महकाऊँ कभी।।

किसी की रूह में समां जाऊं कभी।
उसकी बाहों में ही दफ़्न हो जाऊं कभी।।


-शौर्य शंकर 

"कुछ ऐसी भी गलियाँ हैं"

कुछ ऐसी भी गलियाँ हैं, जहाँ कुछ थके लोग रहते हैं।
उन्ही गलियों से होके मैं अकेले गुज़रा हूँ, अपने सपनो को ढूँढता।।

इस गली से उस गली, इस पार से उस पार तक हो आता हूँ ।
आज मेरी नज़र पड़ी उन्ही लोगों पे, जो पड़े हैं सड़क किनारे।।

जो इंसान थे कभी, आज गज़ालत से लिपटे मॉस के लोथड़े है बस।
जिनकी आँखों की पुतलियाँ ज़रा भी हिलती नहीं, कुछ भी देखती नहीं।।

कान जो सुनते नहीं, मुह से एक भी गूंगे शब्द घूमने निकलते नहीं।
जिन्हें देख अब खुद से नफ़रत होती नहीं, नाकामयाबी मेरा पीछा करती नहीं।।

जिनके ज़रूरतों ने ही शायद अब उनके सपने का मुखौटा ओढ़ लिया है।
उनही को जीना सिखाऊँगा, कुछ यूँ मैं इच्छाओं की तितलियान उड़ाऊंगा।।

उन ही गलियों तक आया हूँ आज, इन् पुरानी खिर्चों को भी अब हसना सिखाऊँगा।
देखो कुछ ही दिनों में वही थके लोग हसने, बात करने, चलने-फिरने लगे हैं।। 

अब वही कचरे से पन्नियों की जगह, सपनो के जामुन चुनने लगे हैं।
अब वो ही रोज़ एक नया सपना, अपने हाथों से कपड़े की तरह बुनने लगे हैं।।

उन्ही हाथों से बुने सपनो को ज़िन्दगी की वाशिंग मशीन में धुलने लगे हैं।
और कुछ उन्ही सपनो में माड़ डाल एकदम कड़क कर, स्त्री करने लगे हैं।।

कुछ ने उन्ही पर इत्र डाल दिया, अब वो ही सरेआम बाज़ार में बिकने लगा है।
अब उन्होंने चख लिया है स्वाद इन मीठे सपनो का और दुनिया से आगे चल दिए हैं।।

अब मैं भी चल देता हूँ किसी और गली में सोए थके लोगों को सपनो से रूबरू करवाने।
आज मैं हूँ और मेरे चारो तरफ उड़ते, हवा में घुलते, मेरा पीछा करते कुछ नए सपने।। 


-शौर्य शंकर 

" ज़हन की खिड़कि, दरवाज़ों"




जब कभी ज़हन की खिड़कि, दरवाज़ों से यादों की हवाएँ टकराएँगी।

मुझे, हमारे साथ बिताये वो ख़ूबसूरत 5 दिन फिर वहीँ, खीच ले जाएंगी।।


अगर कभी मिल ना पाऊँ घर पर या कभी तुम्हारे भेजे ख़तों का जवाब न दूं।

तो सीधे चले आना वहीँ, जहाँ तेरे हर सवाल के जवाब भटकते मिलजाएंगे।।


पहले हज़ारों बहाने थे मिलने, गूफ्तगू के हमारे दरमियान, मेरे दोस्त।

अब हर हसीन लम्हा तुझे वहीँ, उसी ख्वाबगाह में मुकफ़्फ़ल किये मिल जाएंगे।।


वो सब, जो हर लम्हों को हर वक़्त बुनते थे, सहेज के साथ रखने को।

उनके उन्ही लम्हों के मैले, उधड़े रूए, तुझे चारों तरफ उड़ते मिल जाएँगे।।


सब बड़ी जल्दी खो जाते हैं, नई दुनिया के चकाचोंद में यहाँ, ना जाने क्यूँ ?

कुछ जल्दी में लगता है ये शहर, अतीत की लिवास उतार, नया चढ़ा लेता है।।


अपना तो दिल ही कुछ ऐसा है, क्यूँ कर है, पूछूँगा बेतकल्लुफ़्फ़ हो ख़ुदा से कभी?

 रात में क्यूँ कर काफ़िर लम्हों को पनाह देता हूँ, जब साथ नहीं दे पाएँगे कभी।।


वो वैसा ही छोड़ जाएगा, जैसे थे पुराने ज़ख्म, उनपे अपने यादों के नमक डाल  के।

डर के मारे कराहना भी बंद हो जाएगा, जब-जब यादों की हवाएँ दरवाज़े खटखटाएंगे कभी।।


*मुकफ़्फ़ल- तालों में बन किये 

-शौर्य शंकर

Friday 5 July 2013

"ये ज़िन्दगी भी क्या खूब खेल..."



ये ज़िन्दगी भी क्या खूब खेल खिलाती है।

एक पल में हजारों खुशियाँ देती,
दुसरे पल फिर रुलाती है।

एक पल में खुद से मिलाती,
दुसरे पल सबसे दूर कर जाती है।

एक पल में दोस्तों की नयी दुनियां,
दूसरे पल कोहराम मचा जाती है।

एक पल में ख्वाब सिरहाने रखती,
दुसरे पल फिर जगाने आ जाती है।

ज़िन्दगी भी क्या खूब खेल...


---शौर्य शंकर 

"कुछ दिनों से तुम्हारे ख्वाब..."



कुछ दिनों से तुम्हारे ख्वाब सिरहाने रखता हूँ।
जिनसे रात-भर गुफ्तगुं किया करता हूँ।
कभी हाथों में हाथ डाले बादलों पे चलता हूँ।
कभी झील किनारे जुगनुओ की बातें सुनता हूँ।
कभी चाँद की तेज़ खर्राटे की नक़ल करता हूँ।
कभी घंटों आसमान तले चांदनी चुनता हूँ।
कभी तेरी पायल के धुन को गीतों में बुनता हूँ।
कभी तेरी आँखों की परछाईयों को घंटों तक चूमता हूँ।

---शौर्य शंकर

"कई दिनों से तलब लगी है..."


कई दिनों से तलब लगी है, 

                   कुछ ग्राम सुकून है क्या?
हर बाज़ार, दूकानों, ठेले, 

                   पटरी वाले से पूँछ चुका हूँ।
किसी के पास नहीं है, 

                   मैं क्या करूँ कहाँ जाऊं।
अरे कोई तो बता दो, 

                   कोई तो मदद करो मेरी।
कब से भटक रहा हूँ, 

                   यारों हाथ जोड़ता हूँ।
कैसे लोग हैं इस शहर के, 

                   कुछ भी सुनते ही नहीं।
अपनी ही धुन में, 

                   चले जा रहे है बुत बने।
सुना है Online सब मिल जाता है, 

                   आज-कल यहाँ।
तो क्या "Myntra या OLX" पे, 

                    सुकून भी मिल जायेगा?

---शौर्य शंकर

"कागज़ पे कुछ यादें..."



कागज़ पे कुछ यादें, कई दिनों से बिखरी थी।
उसपे आज मैंने कुछ लकीरें, खिंच दी है।
जिसमे तेरा ही चेहरा नज़र आने लगा है।
जिसे दिन से रात, रात से दिन, निहारा करता हूँ।
क्या करूँ, तेरी आँखों को उदास देख रो देता हूँ।
तेरे लबों का मस, मुझे सोने नहीं देता रात भर।
तेरी तस्वीर लिए, अब यूँ ही बेसुध बैठा रहता हूँ।
लोग मुझ पर हँसते, और पागल कह निकल जाते हैं।
अरे पागल तो वो हैं, जो  बेखबर जीते हैं, इश्क से।
मैं तो अब मोहब्बत में ख़ुदा से बात किया करता हूँ।

---शौर्य शंकर

"मेरे पलकों पे एक रात कोई सपना छोड़ गया था..."



मेरे पलकों पे एक रात कोई सपना छोड़ गया था।

क्या किसी ने उसे देखा है, अँधेरे में कहीं उड़ते हुए।


क्या किसी ने देखा है उसे, नदी किनारे कहीं बैठे हुए।


या किसी ने देखा हो, उसके पैरों के निशान धडकते हुए।


कभी यहीं मैं रात भर भागा करता था, पीछे उसके।


वो सुनहरे बाल लिए पानी में, परछाईयाँ पकड़ा करती थी।


मैं उसके पीछे बादलों तक, चढ़ जाया करता था।


कभी उसके जुडवा नैनों को, टकटकी लगाये देखा करता था।


जब वो अपने सुनहरे बालों को, धूप में सुखाया करती थी।


मैं टपकते हर बूँद को माथे लगा, सदका किया करता था।


उसकी खुशबू मुझे आगोश में भर, घंटों नाचा करती थी।

और मैं उसके चेहरे का नूर, एक साँस में पी जाया करता था।


उसे नदी के रास्ते, चाँद के घर छोड़ आऊंगा आज।


यहाँ का मौसम, अब कुछ ठीक नहीं उन जैसों के लिए।



--- शौर्य शंकर

"दिल के किसी कोने में"


दिल के किसी कोने में कोई बच्चा बैठा है चुप-चाप,
जो न कुछ बोलता है और न ही कुछ सुनता है कभी।
बस अतीत के कोयले से दीवार पे कुछ चेहरे बनाता है।
बड़े चेहरे, छोटे चेहरे, गोल तो कभी लम्बे चेहरे।
अतीत की कालिख में उसके हाथ की लकीरे मिटने लगी हैं।
कभी-कभी उन्ही लकीरों में से कुछ सिसक कर रो देते है।
थोड़ी सी भी आहट होने पे खून के आँसू जेब में रख लेते हैं।
उनका दर्द कुछ भी बोलता नहीं, बस बाहर झांकता है।

कुछ दिनों से अब वो छुप-छुप के कुछ देखने लगा है।
झरोखे के पास बैठे अब वो धीरे से गुनगुनाने लगा है।
जब धड़कन से पायल की रुनझुन मिलने आती है।
उसके पीछे दिल के चौखट तक अब वो जाने लगा है।
वो बच्चा अकेले ही अब नदी किनारे टहलने लगा है।
मिट्टी के गमलों में अब गेंदे के फूल उगाने लगा है।
कल से ही अब वो कुछ हल्का सा मुस्कुराने भी लगा है।

--- शौर्य शंकर

मैं किताब के पन्नो को पंख बना अब उड़ने लगा...

मैं किताब के पन्नो को पंख बना अब उड़ने लगा।
मैं उन्ही बचपन के पुराने खिलौनों से फिर खेलने लगा।
मैं रंग बिरंग के पतंगों को गलियों में अब लूटने लगा।
मैं तितलियों के पीछे उनके रंगों को अब ढूँढने लगा।
मैं बांस की हर एक फूँक भी अब कान लगा सुनने लगा।
मैं रंग-बिरंगे कन्चों से गली में बच्चों के साथ खेलने लगा।
मैं लट्टू के हर चक्कर पे गोल-गोल अब घूमने लगा।
मैं नानी-दादी के भूतों के किस्सो से भी अब डरने लगा।

--- शौर्य शंकर

तेरी आँखों के जूठे कुछ आँसू...

तेरी आँखों के जूठे कुछ आँसू, 
                                           मैं आज पी गया हूँ।
तेरी हसीन लबों के पंखुड़ियों को, 
                                           मैं आज चख गया हूँ।
तेरी माथे की बिंदी को चाँद तारों से, 
                                           मैं आज सजा गया हूँ।
तेरी चूड़ियों के रंग में इन्द्रधनुष, 
                                           मैं आज घोल गया हूँ।
तेरी नूर के गुलाल की महक में, 
                                           मैं आज बेशुध हो गया हूँ।
तेरी ख्वाबों की डाली पे एक झूला, 
                                           मैं आज छोड़ गया हूँ।
तेरी नब्ज़ में दौड़ते हर कतरे में, 
                                           मैं आज रच-बस गया हूँ।
तेरी इश्क की परछाई में बेफिक्र होके थोड़ी देर, 
                                           मैं आज सोने चला हूँ।

--- शौर्य शंकर

"पाने को तुझे "




कभी तेरी यादें

खूटे से उतार लाता हु पाने को तुझे।

कभी मंदिर में

दिए कई जलाता हूँ पाने को तुझे।

कभी आँगन में

तुलसी लगता हूँ आने को तुझे।

कभी अरदास कई

कर जाता हूँ माँ के दरबार में पाने को तुझे।

कभी २१ सोमवार के

व्रत तक कर जाता हूँ पाने को तुझे।

कभी झगड़ के

दुनिया से लहूलुहान हो जाता हूँ, पाने को तुझे।

कभी तकता हूँ

ज़िन्दगी भर राह तेरा, एक दिन पाने को तुझे।

कभी जनम मैं

दूसरा भी ले आऊँगा दुल्हन बनाने को तुझे।  



-शौर्य शंकर

"अब तेरे"



अब तेरे तस्वीरों के सामने बैठे

                           मैं उनसे बाते करता हूँ।

अब तेरे साए से मिलने को मिन्नतें

                           मैं कई बार करता हूँ।

अब तेरे झूटे वादों पे भी ऐतबार

                          मैं हर बार करता हूँ।

अब तेरे छोड़े यादों के सिलवटों को भी प्यार

                          मैं दिन रात करता हूँ।

अब तेरे भेजे पुराने ख़तों से नादानियों का इकरार

                         मैं करता हूँ।

अब तेरे दिल के किवाड़ पे दस्तक से दुश्मनी

                         मैं हज़ार कर लेता हूँ।

अब तेरे लिए लिखी कविताओं के पन्नो से

                        मैं कागज़ों के प्लेन उड़ाया करता हूँ।

अब तेरे यादों के चौखट पे इंतज़ार के दिए

                        मैं रोज़ जलाया करता हूँ।

अब तेरे दूर जाने के डर से खुदा से

                       मैं रोज मिलने जाया करता हूँ।

अब तेरे साथ बिताए लम्हों को बुन के

                     मैं अतीत का एक गोला बनाया करता हूँ।

अब तेरे इंतज़ार में हर पल आग के दरिया को पार

                     मैं किया करता हूँ।






-शौर्य शंकर

"कभी देखा है तूने "




कभी देखा है तूने

सूरज को रोज सुबह दांत मांजते हुए।

कभी देखा है तूने

चाँद को छुपके रात में नहाते हुए।

कभी देखा है तूने

चांदनी को धुप में बाल सुखाते हुए।

कभी देखा है तूने

बादलों को अपनी सफ़ेद दाढ़ी रंगवाते हुए।

कभी देखा है तूने

बूढ़े आसमान को बिना दांत के मुस्कुराते हुए।

कभी देखा है तूने

मछलियों को रास्ट्रीय गान गाते हुए।

कभी देखा है तूने

जूग्नूओं को शाम में लालटेन जलाते हुए।

कभी देखा है तूने

रात को बरामदे पे जलती डिबिया बुझाते हुए।

कभी देखा है तूने

पीपल के पेड़ पे बैठी भूतनी को पंछी से डर जाते हुए।

कभी देखा है तूने

बगुले को नई कोलापुरी पहने ससुराल जाते हुए।

कभी देखा है तूने

दरिया को साबून रगड़-रगड़ के नहाते हुए।

कभी देखा है तूने

किनारे को धोती उठाए नाव से उस पार जाते हुए।

कभी देखा है तूने

बिल्ली को चाँद पे चढ़, आँख मीचे  छीके से दूध चुराते हुए।

कभी देखा है तूने

काले कौवे को हवा पे गाय चराते हुए।

कभी देखा है तूने

मेंढक को महफिलों में कव्वाली गाते हुए।

कभी देखा है तूने .........







-शौर्य शंकर

"आज भी कुछ बादल, उसी बिजली की तारों में उलझे है"



आज भी कुछ बादल, उसी बिजली की तारों में उलझे है।

जहाँ कई साल पहले, एक कबूतर रोज़ बैठा करता था।।


जहाँ दिन, चाँद की लालटेन लिए रात में घर जाया करता था।

और रौशनी चुपके से, नंगे पाँव झील किनारे आया करती थी।।


वहीं मचान के पास खड़े खम्बे के नीचे, एक मरियल कुत्ता सोया करता है।

जहाँ एक अँधा बल्ब खम्बे से लटके रात में, किसी की याद में रोया करता है।। 
 

इस सावन उन्ही आंसू के उड़ते बादल, उलझ गए जाने कैसे इन तारो में।

जो कुछ दिनों से, गाँव के गरीब बच्चों को पढ़ना-लिखना सिखाया करता है।।


जो बिजली से बूढ़े बल्ब की आखरी ख्वाहिश, पूरा करने की गुज़ारिश करने गया था।

जिसे गाँव में बिजली, उस कबूतर के मरने के बाद अकेला छोड़, चली आई थी।।


अब उन्ही खम्बों की तारों में बिजली, शायद फिर से रहने आएगी।

अरसे बाद ही सही इस गाँव में, फिरसे खुशियों की दिवाली गुनगुनाएगी।।


जहाँ अंधे, बूढ़े बल्ब ने, बेटी के प्रेमी को देसी तमंचे से, एक गोली दागी थी।

वही आज उसी बाप की, बेटी से मिलने की ख्वाहिश की बाती, बुझने वाली है।।


अभी उसी कबूतर के भाई के हाथों, लोगों ने ये ख़बर, बिजली को भिजवाई है।

महीने बाद, न ही बिजली की आने की उम्मीद रही और ना ही तारों से लटका वो बूढ़ा।।


-शौर्य शंकर

"आज कल मैं, ये काम करने लगा हूँ"

आज कल मैं, ये काम करने लगा हूँ।
सूरज के साथ, सुबह को शाम करने लगा हूँ।।

सूरज की लौ जलाके देखो, मैं दिन करने लगा हूँ।
कभी शाम को फूक से बुझा के, मैं रात करने लगा हूँ।। 
रात के साथ मशाल लिए, पुरे गाँव में घुमने लगा हूँ।
यही दिनचरिया मुट्ठी में थामे, मैं आगे बढ़ने लगा हूँ।।

आज कल मैं, ये काम करने लगा हूँ ......

पिछले हफ्ते से ही मैं, यूँ बिना आराम रहने लगा हूँ।
सोई ख्वाहिशों को मैं, उम्मीदों के पंख, जो देने लगा हूँ।। 
उन्ही ख्वाहिशों को लिए मैं, फिरसे जीने लगा हूँ।
हर मुश्किल को मैं घूँट-घूँट कर, पिने जो  लगा हूँ।।

आज कल मैं, ये काम करने लगा हूँ .....

अब मैं सोता नहीं कभी, इतना काम करने लगा हूँ।
पुरानी आदतों को मैं यूँ, रोज़ नाकाम करने लगा हूँ।।
मैं कभी ख़ाली नहीं बैठता, इतना बेताब रहने लगा हूँ।
"ऐसा ही रहूं " यही प्रार्थना मैं, भगवान् से करने लगा हूँ।।

आज कल मैं, ये काम करने लगा हूँ।
सूरज के साथ सुबह को, शाम करने लगा हूँ।।


-शौर्य शंकर