Friday 16 October 2015

" पता...... "



 हर पते को कितना कुछ पता होता है। 
 हर पते का अपना एक पता होता है।
                हर पते का कुछ नाम होता है। 
                एक नम्बर होता है।      
                कोई गली, कोई मौहल्ला होता है।
                किसी फलाना चौराहे से बायां या दायां होता है। 

हर पते का अपना रंग होता है। 
अपनी गंन्ध होती है। 
अलग पहचान होती है। 

                ढ़ेर सी  यादें होती है। 
                अनकही बातें होती हैं। 
कुछ चर्चे होते हैं। 
कुछ ख़बरें होती हैं। 
कुछ दबी रूदन होती है। 
कुछ ताज़ा ज़ख्म होते हैं। 

  पतों  से उनका  इतिहास, भूगोल, गणित न जाने कितनी चीज़ें जुड़ी होती हैं। 

हर गॉव , मौहल्ला, शहर में 
एक न एक ऐसी जगह होती है 
जहाँ एक पता पूछने वाले को 
कई पता बताने वाले बेल्ले 
मार्गदर्शक मिल जाते हैं। 

आज कल ये प्रजाति बहुत ही ज्यादा फल-फूल रहा है 
और ये ज़्यादातर चाय , पान , किराने ,नाई 
या कपड़े इस्त्री करने वालों के दूकान के आस-पास झुण्ड में पाए जाते हैं। 
जिनसे किसी का पता पूछने पर कुछ ऐसे पता बताते हैं … 


बेल्ला १. -अ.. . . ये. . . उस बरगद के पेड़ से सीधा साइकिल के दूकान से सटा हुआ है. . 
बेल्ला २. … हाँ  वो बूढी अम्मा के सामने वाला घर जिसकी बेटी छोटी जात के लड़के के साथ भाग गई थी ……
बेल्ला ३.  अबे वही न जिनके घर दो खूंखार कुत्ते भौंकते हैं.…
               जिनका भतीजा आतंकवादियों से लड़ते शहीद हो गया था.......... 
बेल्ला ४. नहीं बे…उससे पांचवा घर … मास्टर जी का पता खोज रहे हैं बे ....... 
बेल्ला २.  भगरू नाई के साथ वाली गली में बायें तरफ से दूसरा माकन ,
               जिसकी बहु ने खुद को जला लिया था.... 
बेल्ला १. वो ३ मंजिला माकन न …… 
बेल्ला ३  नहीं बे …मंदिर के पीछे लाल वाला घर , जिसमे वो खूबसूरत मेम रहती थी.………। 
बेल्ला २. जहाँ सफ़ेद एम्बेसडर कार खड़ी रहती है …
बेल्ला १. मैं भी तो वही बता रहा था …बरगद के पेड़ से सीधा साइकिल के दूकान से सटा हुआ है. . 

देखिये एक ही पते के कितने पते होते हैं 
जो पते का पता रखने वालों को भी नहीं पता 
जब तक कोई न पूछे 
पते का अपना पता नहीं होता 
कोई पूछे या न पूछे 
वहां जाए या न जाए 
वो रहता है इंतज़ार में वही 
इंतज़ार ही उसे हमेशा ज़िंदा रखता है 
पते को पता रखता है। 






~ शौर्य शंकर 







Tuesday 20 January 2015

तू जो अगर छू दे माँ.....




अभी तो ये बस सफ़ों पे टंगे चंद लफ्ज़ हैं
तू जो इन्हें अगर छू दे माँ,
हर हर्फ़ गज़ल हो जाए

कभी समझा नहीं तेरी उन शफक़ नम आँखों को
वो आशुफ़्ता बयां करती
और मैं तुझे अनपढ़ समझता रहा

हथेलिओं की मिटती लकीरों को देख जब रो देता हूँ
मेरी हथेली को अपनी हथेलियों पे रख
मुस्कुराके माथा चूम लेती है मेरा

-शौर्य शंकर




कुछ यूँ मैं अब ....


कुछ यूँ खुद को आज़माने लगा हूँ 

इश्क़ की तासीर में खुदा पाने लगा हूँ 


आइने में मैं खुद को अब ये दिखाने लगा हूँ 
क्या इसीलिए मैं बिलावजह गुनगुनाने लगा हूँ 

लोगों के रक़ावत को फना कर धुएं में उड़ाने लगा हूँ 

इस कदर अब मैं तेरे इश्क़ को मुकम्मल बनाने लगा हूँ 



~ शौर्य शंकर 

अब दुआओं में ही जीता हूँ....

May 23, 2013 

अब दुआओं में ही जीता हूँ मैं कबसे
नहीं तो शख़्सियत कब की दफनाई जा चुकी है

-शौर्य शंकर

Tuesday 6 January 2015

तू दिखे है .....

बड़ी मुश्किलात दरपेश रही जवानी के कुछ साल
धड़कते दिल को भी थपकियाँ दे-दे सुलाते रहे

ये कसक तो दिल के परे थी हमारे
फिर भी दिल को तसल्ली दे-दे समझाते रहे

बड़ी ख़्वाहिश थी हमें किसी से इश्क़ करने की
मैं बेवक़ूफ़, चेहरों में ख़ुदा तलाशता रहा

तेरी रौशनी में, कोई भी बुत अब दिखे ही नहीं
चौंदयाई आँखों से अब सब साफ़ जो दिखे है

सब पूछे हैं तेरा नाम, मज़हब मेरे मेहबूब
मैं कुछ भी कहता नहीं, सब पंडित, इमाम से जो दिखे है

अब कोई आशिक़ हो तेरा तो बता भी दूँ
ये क्या समझेंगे मज़हब के साए में लड़ने वाले

तू तो आइना है रूह बन रहता है सबमे
क्या दिखेगा उन्हें जो खुद से ही मुख़ातिब हुए नहीं



~ शौर्य शंकर