Saturday, 25 August 2012

" काश एक उधार की चाय हो जाती ....."


सीधी लम्बी सड़कों पर ,
टेढ़े लोग क्यूँ बस्ते हैं .

इन लम्बी -लम्बी गाड़िओं में,
ख़ूब तेज़ म्यूजिक क्यूँ बजते हैं .

खुद की आवाज़ तो सुनते नहीं ,
फिर माशरे को क्या सुनाते हैं .

कहने को सब कुछ है पर ,
खुद से नज़रें क्यूँ नहीं मिलाते हैं  .

अब तो भूख भी नहीं लगती ,
सब कुछ बटोरते क्यूँ रह जाते हैं .

आज पैसा, नाम सब है पर,
माँ के पैर छुए सालों क्यूँ हो जाते हैं .

साथ रहते हैं सब पर ,
कोनो में बंद क्यूँ रह जाते हैं 

एक वो दिन थे बहार के जब ,
संसार की चीज़े समझते ही नहीं थे 

पहिये लगे रहते थे पैरों में ,
पल में दुनिया टटोल लिया करते थे .

पार्क के जंगले के नीचे से चाय की घुसपैठ करके ,
छोटे -छोटे फलसफों पे हस्ते रहते थे .
.
हमें हसी तो हर बात पे आजाती थी ,
पता नहीं क्यूँ और किस बात पे हँसते रहते थे 

फ़िक्र तो शब्दकोष से बाहर थी हमारे ,
जेब में अठन्नी बगैर ही हम राजा हुआ करते थे .

शम्भू की दुकान पे रोज़ शाम जमघट लगाके ,
छोटी -छोटी बातों पे उसे चिढ़ाया करते थे .

चाय ठंढ़ी ,कम मीठी तो कभी गंदे ग्लास के बहाने ,
तो कभी एक -एक और चाय के लिए उसे मनाया करते थे .

उसकी उधार  की लम्बी लिस्ट निकालने पर ,
एक दुसरे की तरफ देखकर "आज मेरा भाई पैसे देगा " कहते थे .

भाई खुद भी यही कहने वाला होता था ,
फिर अपनी -अपनी खाली जेबे टटोला करते थे .

जब फटी जेब दिखा कर भी काम न बनता था ,
तो उसकी गन्दी मुछों की तारीफों के जाल भी बुना करते थे .

बड़ी मशक्कत के बाद ही  सही वो जरा सा मुस्काता था ,
माँ कसम एक और चाय का जुगाड़ हो जाता था .

अब तो बिस्कुट की भी गुंजाईश बनती थी ,
फिर थोड़ी और कहानी, ज़ुबान हमारी बुनती थी .

बारिश की ठंडी हवा के झोकों से ,
लोगों को कभी भागते तो कभी छुपते देखा करते थे .

क्या पता था ज़िन्दगी के थपेड़ों से,
कभी हम भी भागते तो कभी छुपते रहेंगे .

सारांश इसका समझा नहीं अब तक ,
जी रहे हैं अब या पहले ही जिया करते थे .

काश एक उधार की चाय हो जाती .......



शौर्य शंकर 


1 comment:

  1. Aaj hum har cheez ki kimat lagate hai aur de sakte hai, par nahi kharid sakte to wo ek udhar ki chai... Very nice... Keep writing...

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