सीधी लम्बी सड़कों पर ,
टेढ़े लोग क्यूँ बस्ते हैं .
इन लम्बी -लम्बी गाड़िओं में,
ख़ूब तेज़ म्यूजिक क्यूँ बजते हैं .
खुद की आवाज़ तो सुनते नहीं ,
फिर माशरे को क्या सुनाते हैं .
कहने को सब कुछ है पर ,
खुद से नज़रें क्यूँ नहीं मिलाते हैं .
अब तो भूख भी नहीं लगती ,
सब कुछ बटोरते क्यूँ रह जाते हैं .
आज पैसा, नाम सब है पर,
माँ के पैर छुए सालों क्यूँ हो जाते हैं .
साथ रहते हैं सब पर ,
कोनो में बंद क्यूँ रह जाते हैं
एक वो दिन थे बहार के जब ,
संसार की चीज़े समझते ही नहीं थे
पहिये लगे रहते थे पैरों में ,
पल में दुनिया टटोल लिया करते थे .
पार्क के जंगले के नीचे से चाय की घुसपैठ करके ,
छोटे -छोटे फलसफों पे हस्ते रहते थे .
.
हमें हसी तो हर बात पे आजाती थी ,
पता नहीं क्यूँ और किस बात पे हँसते रहते थे
फ़िक्र तो शब्दकोष से बाहर थी हमारे ,
जेब में अठन्नी बगैर ही हम राजा हुआ करते थे .
शम्भू की दुकान पे रोज़ शाम जमघट लगाके ,
छोटी -छोटी बातों पे उसे चिढ़ाया करते थे .
चाय ठंढ़ी ,कम मीठी तो कभी गंदे ग्लास के बहाने ,
तो कभी एक -एक और चाय के लिए उसे मनाया करते थे .
उसकी उधार की लम्बी लिस्ट निकालने पर ,
एक दुसरे की तरफ देखकर "आज मेरा भाई पैसे देगा " कहते थे .
भाई खुद भी यही कहने वाला होता था ,
फिर अपनी -अपनी खाली जेबे टटोला करते थे .
जब फटी जेब दिखा कर भी काम न बनता था ,
तो उसकी गन्दी मुछों की तारीफों के जाल भी बुना करते थे .
बड़ी मशक्कत के बाद ही सही वो जरा सा मुस्काता था ,
माँ कसम एक और चाय का जुगाड़ हो जाता था .
अब तो बिस्कुट की भी गुंजाईश बनती थी ,
फिर थोड़ी और कहानी, ज़ुबान हमारी बुनती थी .
बारिश की ठंडी हवा के झोकों से ,
लोगों को कभी भागते तो कभी छुपते देखा करते थे .
क्या पता था ज़िन्दगी के थपेड़ों से,
कभी हम भी भागते तो कभी छुपते रहेंगे .
सारांश इसका समझा नहीं अब तक ,
जी रहे हैं अब या पहले ही जिया करते थे .
काश एक उधार की चाय हो जाती .......
शौर्य शंकर
शौर्य शंकर
Aaj hum har cheez ki kimat lagate hai aur de sakte hai, par nahi kharid sakte to wo ek udhar ki chai... Very nice... Keep writing...
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