Sunday 21 April 2019

टिक, टिक, टिक.....

घड़ी के
हर एक टिक से
अगले टिक के बीच
सूरज के
हर एक पुंज से
दूसरे पुंज के बीच
दिल की
हर एक धड़कन से
दूसरे धड़कन के बीच
कुछ मेरा अपना
बहुत प्यारा सा
“ मैं”
कहीं खो जाता है
क़तरा-क़तरा सा रिसता हूँ
गोंद सा इस वकफ़े में
थोड़ा चमकता
फिर इतिहास हो जाता हूँ
मैं
दिन के उजाले मे
चकाचौंध आँखों से
टटोलता हूँ चेहरा
लगता है अपना सा
फिर ग़लतफ़हमी सोच
आँख मल के
सो जाता हूँ
मैं
कुछ उँगलियों पे
लगा रह जाता है
सुनहरे गुलाल सा शायद
फिर अगले ही पल
इत्तर सा कहीं
छू.... हो जाता हूँ
मैं
विलुप्त हो चुका है
क्या है
कैसा है
कहाँ रहता है
और कब होता है
क्या खाता
कहाँ सोता
किसी के साथ या
अकेले रहता है
कैसा दिखता है
लिबास
शक्ल
आवाज़
गंध
आँखों का रंग
इस टिक से टिक के बीच
समय का राक्षस हँसता है
थोड़ी और बूढ़ी होती
एक माँ का निकम्मा बेटा
इस शोर मे खो जाता है
थोड़ा और भटक जाता है
माँ से दूर हो जाता है
टिक, टिक, टिक.....
~ शौर्य शंकर

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