Sunday 23 June 2019

रोज़....



रोज़ उतारता
क़मीज़ बदन पे से
और टाँग देता
अपना आज खूटे पे
मैल और पसीने में
मेरी दिनचर्या
सवाल करती
मेरे नए मैं से
हर क़मीज़ में दर्ज
वक़्त घूरता है
नाराज़
सुबह अलग होता हूँ
कुछ जो अलग होता रोज़
टटोलता अपना शरीर
पर दिखता सब ठीक
खूँटों पे
उन क़मीज़ों में
धूल और पसीने में
हर दिन का ‘मैं’ टंग़ा है
कुछ घायल हैं
छल्ली हैं
लहू रिसता उनसे
क़तरा दर क़तरा
सूख जाता है
हर रविवार उतारता हूँ
खूँटों पे से खूद को
क़मीज़ के साथ
धूल
पसीना
आँसू
दर्द
दाग़ यादों के
हर दिन के
लाशों पे से
रगड़-२ के
धोता हूँ
नामों निशाँ
मिटा देता हूँ अपना
धूप मल के
उन्ही क़मीज़ों पे
अगले दिन के लिए
तय्यार कर देता हूँ
नई दिनचर्या को.....
~ शौर्य शंकर

No comments:

Post a Comment