Friday, 5 July 2013

"आज भी कुछ बादल, उसी बिजली की तारों में उलझे है"



आज भी कुछ बादल, उसी बिजली की तारों में उलझे है।

जहाँ कई साल पहले, एक कबूतर रोज़ बैठा करता था।।


जहाँ दिन, चाँद की लालटेन लिए रात में घर जाया करता था।

और रौशनी चुपके से, नंगे पाँव झील किनारे आया करती थी।।


वहीं मचान के पास खड़े खम्बे के नीचे, एक मरियल कुत्ता सोया करता है।

जहाँ एक अँधा बल्ब खम्बे से लटके रात में, किसी की याद में रोया करता है।। 
 

इस सावन उन्ही आंसू के उड़ते बादल, उलझ गए जाने कैसे इन तारो में।

जो कुछ दिनों से, गाँव के गरीब बच्चों को पढ़ना-लिखना सिखाया करता है।।


जो बिजली से बूढ़े बल्ब की आखरी ख्वाहिश, पूरा करने की गुज़ारिश करने गया था।

जिसे गाँव में बिजली, उस कबूतर के मरने के बाद अकेला छोड़, चली आई थी।।


अब उन्ही खम्बों की तारों में बिजली, शायद फिर से रहने आएगी।

अरसे बाद ही सही इस गाँव में, फिरसे खुशियों की दिवाली गुनगुनाएगी।।


जहाँ अंधे, बूढ़े बल्ब ने, बेटी के प्रेमी को देसी तमंचे से, एक गोली दागी थी।

वही आज उसी बाप की, बेटी से मिलने की ख्वाहिश की बाती, बुझने वाली है।।


अभी उसी कबूतर के भाई के हाथों, लोगों ने ये ख़बर, बिजली को भिजवाई है।

महीने बाद, न ही बिजली की आने की उम्मीद रही और ना ही तारों से लटका वो बूढ़ा।।


-शौर्य शंकर

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