Friday, 12 July 2013

"कुछ ऐसी भी गलियाँ हैं"

कुछ ऐसी भी गलियाँ हैं, जहाँ कुछ थके लोग रहते हैं।
उन्ही गलियों से होके मैं अकेले गुज़रा हूँ, अपने सपनो को ढूँढता।।

इस गली से उस गली, इस पार से उस पार तक हो आता हूँ ।
आज मेरी नज़र पड़ी उन्ही लोगों पे, जो पड़े हैं सड़क किनारे।।

जो इंसान थे कभी, आज गज़ालत से लिपटे मॉस के लोथड़े है बस।
जिनकी आँखों की पुतलियाँ ज़रा भी हिलती नहीं, कुछ भी देखती नहीं।।

कान जो सुनते नहीं, मुह से एक भी गूंगे शब्द घूमने निकलते नहीं।
जिन्हें देख अब खुद से नफ़रत होती नहीं, नाकामयाबी मेरा पीछा करती नहीं।।

जिनके ज़रूरतों ने ही शायद अब उनके सपने का मुखौटा ओढ़ लिया है।
उनही को जीना सिखाऊँगा, कुछ यूँ मैं इच्छाओं की तितलियान उड़ाऊंगा।।

उन ही गलियों तक आया हूँ आज, इन् पुरानी खिर्चों को भी अब हसना सिखाऊँगा।
देखो कुछ ही दिनों में वही थके लोग हसने, बात करने, चलने-फिरने लगे हैं।। 

अब वही कचरे से पन्नियों की जगह, सपनो के जामुन चुनने लगे हैं।
अब वो ही रोज़ एक नया सपना, अपने हाथों से कपड़े की तरह बुनने लगे हैं।।

उन्ही हाथों से बुने सपनो को ज़िन्दगी की वाशिंग मशीन में धुलने लगे हैं।
और कुछ उन्ही सपनो में माड़ डाल एकदम कड़क कर, स्त्री करने लगे हैं।।

कुछ ने उन्ही पर इत्र डाल दिया, अब वो ही सरेआम बाज़ार में बिकने लगा है।
अब उन्होंने चख लिया है स्वाद इन मीठे सपनो का और दुनिया से आगे चल दिए हैं।।

अब मैं भी चल देता हूँ किसी और गली में सोए थके लोगों को सपनो से रूबरू करवाने।
आज मैं हूँ और मेरे चारो तरफ उड़ते, हवा में घुलते, मेरा पीछा करते कुछ नए सपने।। 


-शौर्य शंकर 

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