Friday, 5 July 2013

मैं किताब के पन्नो को पंख बना अब उड़ने लगा...

मैं किताब के पन्नो को पंख बना अब उड़ने लगा।
मैं उन्ही बचपन के पुराने खिलौनों से फिर खेलने लगा।
मैं रंग बिरंग के पतंगों को गलियों में अब लूटने लगा।
मैं तितलियों के पीछे उनके रंगों को अब ढूँढने लगा।
मैं बांस की हर एक फूँक भी अब कान लगा सुनने लगा।
मैं रंग-बिरंगे कन्चों से गली में बच्चों के साथ खेलने लगा।
मैं लट्टू के हर चक्कर पे गोल-गोल अब घूमने लगा।
मैं नानी-दादी के भूतों के किस्सो से भी अब डरने लगा।

--- शौर्य शंकर

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