Friday, 5 July 2013

"मेरे पलकों पे एक रात कोई सपना छोड़ गया था..."



मेरे पलकों पे एक रात कोई सपना छोड़ गया था।

क्या किसी ने उसे देखा है, अँधेरे में कहीं उड़ते हुए।


क्या किसी ने देखा है उसे, नदी किनारे कहीं बैठे हुए।


या किसी ने देखा हो, उसके पैरों के निशान धडकते हुए।


कभी यहीं मैं रात भर भागा करता था, पीछे उसके।


वो सुनहरे बाल लिए पानी में, परछाईयाँ पकड़ा करती थी।


मैं उसके पीछे बादलों तक, चढ़ जाया करता था।


कभी उसके जुडवा नैनों को, टकटकी लगाये देखा करता था।


जब वो अपने सुनहरे बालों को, धूप में सुखाया करती थी।


मैं टपकते हर बूँद को माथे लगा, सदका किया करता था।


उसकी खुशबू मुझे आगोश में भर, घंटों नाचा करती थी।

और मैं उसके चेहरे का नूर, एक साँस में पी जाया करता था।


उसे नदी के रास्ते, चाँद के घर छोड़ आऊंगा आज।


यहाँ का मौसम, अब कुछ ठीक नहीं उन जैसों के लिए।



--- शौर्य शंकर

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