दुनिया की इस भीड़ में ख़ुद को,
अक्सर में खोया पाता हूँ।
लोगों की इस सरगर्मी में,
हर एक चहरा जब नया पाता हूँ।
कुछ को पास आते,
कुछ से खुद दूर होता जाता हूँ।
हस्ते तो सब हैं यहाँ पर,
खुदसे क्यों उन्हें ख़फा पाता हूँ?
"ऐसा क्यूँ है" पूछता हु खुदसे,
फिर खुद को ही समझाता हूँ।
मुखौटे हैं सबके चहरे पे यहाँ ,
जब रोज़ उन्हें खुदकी रूह दफ़्नातॆ पाता हूँ।
नाकुछ देखता हूँ, ना सुनता हूँ;
अँधेरे में बेख़ौफ़ सड़क पार कर जाता हूँ।
अपने अकेलेपन को खुद में छुपाये,
सबसे बचते जल्दी से जीना चढ़ जाता हूँ।
अकेलापन गीरेबां से बाहर ना झाँक ले,
इसी लिए उसे चुप चाप पुल के नीचे छुपा आता हूँ।
और मैं फिर अकेला ही रह जाता हूँ ....
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