Friday, 12 July 2013

"कोई बता दे मेरे साथ ऐसा क्यूँ है "

तीन दिन से पड़ा हूँ मैं कोने में यूँ ही।
जैसे रखे सामान में से, मैं भी एक हूँ।।

 लोगों के दिन में, मैं सहर देखता हूँ।
उनके शाम में, अपनी दोपहर को।। 

लोगों के शब् में अपनी शाम खोजता हूँ। 
तो सहर में अपनी आँखों की रैना को।।   

क्या दुनिया से मैं एक पहर पीछे हूँ ?
 या वो मुझसे आगे भाग रही है।।

पहले माँ की गालियाँ भी लुफ्त-अन्दोज़ कर जाती थी। 
अब माँ की हलक में भी रेगिस्तान हुआ करता है।।

पहले तो गालियाँ भी मुतासिर न हो पाती थी। 
अब चुप्पी भी खंजर से हालाक किया करती है।।

अब कहाँ जाऊ, किस्से बात करू और क्या?
चलते हुए भी रुके होने का एहसास, ज़हन में पाता हूँ।।

मेरी दुनिया थक के, थम चुकी है कब की।
पर दुनिया को हरवक्त, रफ़्तार को तैयार पाता हूँ।। 

क्या है ये मुझे मालुम नहीं, न ही जानना है मुझे? 
पहले लोग, मुझमे ही सारा जहाँ पा लिया करते थे।। 

कल तक, जो महफिलों का चराग हुआ करता था। 
आज वीरानों की सिली बू सा बेहाल रहता है।। 

ये गलती किसकी है कुछ मालुम नहीं।
पर हर गलती की गवाही मैं भी दिया करता नहीं।। 

चलता हूँ मैं अब उन् दोस्तों के आगोश में। 
जो बिना किसी मतलब भी, पनाह देते है मुझे।।


-शौर्य शंकर 
   

No comments:

Post a Comment