Friday, 12 July 2013

" ज़हन की खिड़कि, दरवाज़ों"




जब कभी ज़हन की खिड़कि, दरवाज़ों से यादों की हवाएँ टकराएँगी।

मुझे, हमारे साथ बिताये वो ख़ूबसूरत 5 दिन फिर वहीँ, खीच ले जाएंगी।।


अगर कभी मिल ना पाऊँ घर पर या कभी तुम्हारे भेजे ख़तों का जवाब न दूं।

तो सीधे चले आना वहीँ, जहाँ तेरे हर सवाल के जवाब भटकते मिलजाएंगे।।


पहले हज़ारों बहाने थे मिलने, गूफ्तगू के हमारे दरमियान, मेरे दोस्त।

अब हर हसीन लम्हा तुझे वहीँ, उसी ख्वाबगाह में मुकफ़्फ़ल किये मिल जाएंगे।।


वो सब, जो हर लम्हों को हर वक़्त बुनते थे, सहेज के साथ रखने को।

उनके उन्ही लम्हों के मैले, उधड़े रूए, तुझे चारों तरफ उड़ते मिल जाएँगे।।


सब बड़ी जल्दी खो जाते हैं, नई दुनिया के चकाचोंद में यहाँ, ना जाने क्यूँ ?

कुछ जल्दी में लगता है ये शहर, अतीत की लिवास उतार, नया चढ़ा लेता है।।


अपना तो दिल ही कुछ ऐसा है, क्यूँ कर है, पूछूँगा बेतकल्लुफ़्फ़ हो ख़ुदा से कभी?

 रात में क्यूँ कर काफ़िर लम्हों को पनाह देता हूँ, जब साथ नहीं दे पाएँगे कभी।।


वो वैसा ही छोड़ जाएगा, जैसे थे पुराने ज़ख्म, उनपे अपने यादों के नमक डाल  के।

डर के मारे कराहना भी बंद हो जाएगा, जब-जब यादों की हवाएँ दरवाज़े खटखटाएंगे कभी।।


*मुकफ़्फ़ल- तालों में बन किये 

-शौर्य शंकर

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