Tuesday, 16 July 2013

"तेरी तरह"

तुम्हारी कविताओ से खुशबु आने लगी है।
कुछ नयी बेलें  निकल आई है ,
कुछ नए फूल खिले है।

उन्ही फूलों में से, जो मुरझा गए थे।

कुछ को घर के पीछे की क्यारी में रोप दिया था।
मेरे पीछे, कुछ ही दिनों में उसकी बेलें,
देखो न छत्त तक चढ़ आई है।

अब उन्ही बेलों में वैसे ही ख़ुशबू वाले फूल खिले है,
जो पूरे घर को महकाया करती है, तेरी तरह।


कभी आँगन में कुर्सी पर बैठे अपने बाल सुखाती।
कभी सिलबट्टे पर चटनी पीसते मेरी लिखी नज़्मे गुनगुनाती, तेरी तरह।


कभी आइना चमकाती है मेरे चहरे पर,
कभी वही नींबू  वाली काली चाय बनती है, तेरी तरह।

कभी सोते हुए चद्दर खीच ले जाती है,
कभी गीले बाल चहरे पर डाल जगाती है, तेरी तरह।

कभी साड़ी के कौने में चाभियाँ बाँध घुमती है,
कभी चूड़ियां खन्नका के बात करती, नाराज़ होने पर, तेरी तरह।


अब तुझे याद करता हूँ उन्ही के दरमियाँ बैठे,
और उनसे घंटों बातें करता हूँ
तेरी गैर-मौज़ूदगी में  ....



~ शौर्य शङ्कर


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