अँधेरे की ऊनी चादर ओढ़े,
वो रात भयानक सी है.
जहाँ अभी गोली चली थी,
जहाँ थोड़ी देर पहले भगदड़ मची थी।
एक तरफ, गाड़ियों के टूटे कांच पड़े थे,
तो कहीं किसी की दुकान लुटी पड़ी थी।
एक तरफ कहीं आग की लपटें, मुंह खोले खड़ी थी,
तो दूसरी तरफ, उस गली के नुक्कड़ पर भिकारी की लाश पड़ी थी।
जिसे अभी-अभी पुलिस ले गई है, पोस्टमॉर्टेम के लिए।
और दहशत के पहरेदार गली में छोड़ गयी है।
डर भी अब छुपी दीवार की आड़ में,
कभी दरारों से झांकती, फिर छुप जाती है।
हवा भी आँख-मुंह-नाक-कान मींचे,
ठिठुरते बैठी है कोने में।
गली के नुक्कड़ पे बैठा,वो चौकीदार,
ऊँघता हुआ,जैसे अफ़ीम की रोटी खाई हो रात के खाने में।
तभी हवा ज़रा सी हिली,
आँखों से पलकों को दुकान की शटर जैसे
धीरे-धीरे ऊपर उठाया
और इधर-उधर फेरते,
जायज़ा लेते हुए,आँख थोड़ी और खोली।
नज़रों को थोड़ी दूर नुक्कड़ तक,
गश्त लगाने को भेजा, तो ख़याल आया,
इन चुप, अवाक् जगह में उसका क्या काम,
कहीं और चलती हूँ।
अपने हाथ खोले,सर ऊपर सीधा उठाये,
एक हाथ ज़मीन पर टिकाया,
दूसरा अपने ठंढे पड़े घुटने पर।
फिर ज़ोर लगा के उठी और एक बड़ी सी अंगड़ाई ली।
अचानक से पत्तों की सरसराहट
धुल के कणों की घबराहट,
हवा की अपनी हिचकिचाहट,
सब आपस में घुलने लगी।
वो धीरे-धीरे हलके कदम आगे की ओर रखने लगी।
और अगले ही पल सन्नाटों को महबूस* किये,
सांय-सांय इस गली से उस गली तक बहने लगी।
अचानक से गली का कुत्ता उठ बैठा,
चौंकीदार भी नशे से जाग गया।
कहीं दूर हल्की-हल्की रौशनी भी,
मकई के लावों* जैसी फूटने लगी,
अन्धकार को, रौशनी की छन्नी से छानने लगी,
कुछ लटके कपड़े दूर अब अकेले खड़े दिखने लगे।
चिड़ियों की बातें भी अब फिजां में उड़ने लगीं,
गिलहरियाँ भी अपने रोज-मर्रा के वर्जिस में जुट गयीं।
वहीँ कोने में मुंह छुपाये ख़रगोश,
बैठा ख़ल्वतों* में ना जाने, क्यों?
सूरज भी जम्हाई लेता समुन्दर की गोद से,
आँखों को मीचे, कनखियों से इधर-उधर देख,
ज़रा सी और खोलकर आँखों को, मलता उठा।
गली के एक कोने पे कुत्ते भोकने लगे ,
उन ग़लाज़त* से लिबास में लिपटी दो छोटी बच्चियां ,
अपने से भी बड़े बोरी लादे,
जिनमे मुसाइबों* के छोटे-छोटे गुड्डे लिए,
पन्नियाँ बीनने निकली हैं।
कहीं-कहीं किसी घर के रसोईघर की बत्तियां जली,
अपने में बड़-बड़ाते बल्ब जो शायद उठना नहीं चाहते होंगे,
काफी हलकी रौशनी फेक रहे थे।
कुछ माँए आधी जगी, उठ गयी हैं,
अपने बच्चों के टिफ़िन बनाने को।
कहीं दूधिया अपनी साइकिल पे ,
बड़े-बड़े पीपे लादे,
नुक्कड़ से दुसरे घर के सामने रूका।
एक बूढी औरत जिसने झट से दरवाज़ा खोला ,
जैसे वो राह देख रही हो उसका।
अब उजाला ओस की बूंदों की तरह फ़ैल चुकी है,
लोग धीरे-धीरे घर को छोड़, सुबह से मिलने लगे।
बच्चे अपने स्कूल को और लोग पास के पार्क में टहलने लगे।
वहीँ उसी नुक्कड़ पे आज कोई और भिखारी बैठा दिखा,
कल के हादसे को लोग भूल, उन्ही ख़ून के धब्बों पे चलने लगे।
ख़ल्वतों*- एकांत
मकई के लावों* - मक्के के फुले
ग़लाज़त*- गंदे
महबूस* -जकड़े/कैद
मुसाइबों*- दुःख
-शौर्य शंकर